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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
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से 959) जो पहले शिष्यत्व न ग्रहण करके आचार्य होने की जल्दी करता है, वह ढोंढाचार्य है इन सदोष श्रमणों के मूलाचार में पांच भेद बतलाये हैं- पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसन्न, मृगचरित्र। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अयुक्त तथा धर्मादि में हर्ष रहित होते हैं। ये पार्श्वस्थ आदि पांचों प्रकार के श्रमण आचरणहीन होने के कारण श्रमणाभासी हैं और अवंद्य हैं जैसा कि मूलाचार में कहा है
दसणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालं पासत्था।
एदे अवद्यणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधारय। मूलाचार ९७ छिद्रप्रेक्षिणः सर्वकालं गुणधारणं च छिद्रान्वेषिणः संयतजनस्य दोषाद्भाविनो यतिः न वंदनीया एतेऽन्ये च।
ये पार्श्वस्थ आदि साधु दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की विनय से हमेशा दूर रहते हैं। इसलिए ये वंदनीय नहीं हैं। ये हमेशा गुणधरों के छिद्रों को देखने वाले हैं- संयत जनों के दोषों को प्रगट करने वाले हैं इसीलिए ये अवंद्य हैं तथा इनसे अतिरिक्त अन्य पाखण्डी साधु भी वंदना के योग्य नहीं हैं।
श्रमणाभासी साधु तीर्थकरों के काल में भी होते थे और इस पंचम काल में तो इनकी बहुलता है। पांचों प्रकार के श्रमणाभास यत्र तत्र विचरण करते हुए पाये ही जाते हैं, उन्हीं के विषय में विवेचन प्रस्तुत हैपार्श्वस्थ
संयत के गुणों के पार्श्व में स्थित रहने वाले श्रमण पार्श्वस्थ कहलाता है अर्थात् अतिचार रहित संयम मार्ग का स्वरूप जानकर भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करते परन्तु संयम मार्ग के समीप ही रहते हैं। इस तरह एकान्त रूप से जो असंयमी नहीं है किन्तु निरतिचार संयम का पालन नहीं करने वाले श्रमण पार्श्वस्थ हैं। मूलाचार में स्पष्ट कहा है कि जो वसतिकाओं में आसक्त हैं, उपकरणों को बनाते हैं, मुनियों के मार्ग का दूसरे से आश्रय करते हैं, वे पार्श्वस्थ कहलाते हैं। इनमें मोह, आसक्ति और संग्रह की प्रवृत्ति अधिक होती है। निषिद्ध स्थानों में आहार लेते हैं। हमेशा एक ही वसतिका में रहते हैं। एक ही संस्तर पर शयन करते हैं। गृहस्थों के घर में बैठक बनाते हैं अर्थात् कोठियों में जाकर ठहरते हैं। गृहस्थोपकरणों से अपनी शौचादि क्रिया करते हैं, जिसका शोधन अशक्य है। जो फ्लस का प्रयोग करेगा, वह शौचस्थान का शोधन कैसे कर सकता है? वर्तमान में महानगरों में जो मुनि कोठियों में ठहरते हैं, फ्लस का प्रयोग करते हैं उनके प्रतिष्ठापना समिति का भी पालन नहीं होता है। मूलाचार की दृष्टि से वह अयथार्थ पार्श्वस्थ आदि मुनियों की कोटि में ही आयेंगे। निर्ग्रन्थपने में एक स्थान का सतत वास सर्वथा बाधक है। अतः जो साध
ओं के द्वारा अपने सर्वसुविधायुक्त निवास बनवाने की प्रवृत्ति चल रही है वह जिनमत से बाह्य है। इस प्रवृत्ति के पार्श्वस्थ आदि मुनियों की क्या दशा होती है ? इस विषय में आचार्य शिवार्य लिखते हैं "जैसे विषैले काटों से बिंधे हुए मनुष्य अटवी में अकेले पड़े हुए दुःख पाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्व, माया और निदान शल्य रूपी कांटों से बिंधे हुए वे पार्श्वस्थ मुनि दु:ख पाते हैं। ये संघ का मार्ग त्यागकर ऐसे लोगों के पास जाते हैं जो चारित्र