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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 ग्रहण करते हैं। पिण्डशुद्धि अधिकार में बताया गया है कि भक्ति पूर्वक दिये गये, शरीर योग्य प्रासुक, नवकोटि विशुद्ध एषणा समिति से शुद्ध, दस दोषों, चौदह मलों से रहित भोजन का द्रव्य क्षेत्र काल, भाव को जानकर ग्रहण करते हैं । श्रमणों के दैनिक जीवन में सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग इन षडावश्यकों का विशेष स्थान होता है।
श्रमणों का मूल उद्देश्य विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करना या परभाव से हटकर स्वभाव में आना। ये प्रदर्शन न कर आत्मदर्शन करते हैं। बाह्य शौच की अपेक्षा आध्यात्मिक शुद्धि का विशेष ध्यान रखते हैं। आध्यात्मिक विकास क्रम (गुणस्थान की अपेक्षा) छठा सातवां स्थान है। श्रमण मन, वचन और काया से न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों को करने के लिए ही उत्प्रेरित करता है, न हिंसा की अनुमोदना करता है। जिस श्रमण के आचार में निर्मलता है, वही श्रमण विज्ञ है और वही आचार का सही रूप से पालन करता है। तृष्णा मुक्त साधक श्रेष्ठ होता है क्योंकि तृष्णा आकाश की तरह अनन्त है वह कभी पूर्ण नहीं होती इसलिए साधु को तृष्णा से मुक्त रहना ही चाहिए। बालाग्र भी परिग्रह संचय साधु नहीं करते। हस्तांजुलि ही उनका भोजन पात्र है। आहार ही दिन में एक बार खड़े होकर प्रासुक एवं श्रावक द्वारा दिया हुआ ही ग्रहण करते हैं। ऐसी चर्या दिगम्बर साधु की होती है। संयमी जीवन में कई बार अनुकूल परीषह भी आ जाते हैं, उस समय साधक की स्खलना की संभावना रहती है किन्तु जो श्रमण सावधान रहते हैं, वही मोक्षमार्ग पर बढ़ते हैं। श्रमणों की साधना पद्धति में त्याग का उच्चतम आदर्श, अहिंसा का सूक्ष्मतम पालन, व्यक्तित्व का पूर्ण विकास, संयम या तप की पराकाष्ठा पायी जाती है।
प्रवचनसार में शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी श्रमण के दो भेद बतलाये हैं किन्तु मूलाचार में इन भेदों की चर्चा नहीं है। नयचक्र में सराग और वीतराग श्रमणों की चर्चा है तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक आदि ग्रंथों में पुलकादि भेदों का कथन है किन्तु मूलाचार में निक्षेप की दृष्टि से श्रमण के भेदों को प्रतिपादित किया है। यथा जैसे नाम से श्रमण होते हैं, वैसे ही स्थापना से, द्रव्य से तथा भाव से होते हैं।
इस प्रकार श्रमण स्वरूप, श्रमण माहात्म्य और श्रमण के भेदों को बताया गया अब जो श्रमण न होकर श्रमण जैसे भासित होते हैं उन पर विचार किया जा रहा है। श्रमणाभास और श्रमणाभासी
जो अययार्थ साधु हैं, वे श्रमणाभासी कहे जायेंगे। संयत जप से, तप से युक्त होने पर भी जिनाज्ञा का पालन या श्रद्धान न करने वाले श्रमण न होकर श्रमणाभासी हैं जैसा कि कहा गया है
ण हवदि समणोत्ति मदो संजम तवसुत्त संपजुत्तो वि।
जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे॥ प्रवचनसार २६४ जो जिनेन्द्र कथित जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान नहीं करता है, वह संयम, तप तथा आगम रूप संपत्ति से युक्त होने पर भी श्रमण नहीं माना गया है। वह श्रमणाभास है।