________________
69
अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 योद्धा बाण-तोमन आदि तीक्ष्ण शस्त्रों से सिद्ध नहीं होता है। उसी प्रकार आहार, गुरुवंदना आदि कार्यों में तत्पर मुनि समिति सहित विहार करने के कारण पाप लिप्त नहीं होते हैं।
श्रमण की प्रवृत्ति में यत्नाचार की प्रधानता उनके सतत सावधानता को निरूपित करती है। वर्तमान में कुछ साधुओं द्वारा उक्त कथन का भी उल्लंघन किया जा रहा है। वे प्रमाद के वशीभूत होकर अपनी क्रियाओं के प्रति उपेक्षा करते हैं, जिसके कारण पाप बंध को भी प्राप्त होते हैं, जो क्रियाओं में सावधान हैं। वे भावलिंगी श्रमण मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं। __ भावलिंग शून्य द्रव्यलिंग मात्र से कल्याण होने वाला नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग में सभी को स्वीकार न करके जिन्हें स्वीकार किया गया है, उनके विषय में कहा गया है कि
णिग्गंथ मोहमुक्का वावाहपरिसहा जियकसाया।
पावारंभ विमुक्का ते गहीया मोक्खमग्गम्मि॥ ८०॥ मोक्षपाहुड़ जो परिग्रह से रहित हैं, पुत्र-मित्र-स्त्री आदि के स्नेह से रहित हैं।22 परीषहों को सहन करने वाले हैं। कषायों को जीतने वाले हैं तथा पाप और आरंभ से दूर हैं। वे मोक्षमार्ग में अंगीकृत हैं।
श्रमण जीवन लौकिक व्यवहारों से परे होता है किन्तु उनकी आहार चर्या, वैयावृत्य आदि कार्य गृहस्थों के बिना नहीं सधते। अतः श्रमणों को गृहस्थों के साथ अपनी मर्यादाओं के अन्तर्गत संपर्क आवश्यक होता किन्तु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि गृहस्थों के साथ उनके आवासों पर रात्रि विश्राम किया जाय या उनसे धन आदि लेने के लिए उन्हें मंत्र आदि देकर संतुष्ट किया जाय। श्रमण को गृहस्थों से अधिक परिचय नहीं बढ़ाना चाहिए और उनकी विनय आदि भी नहीं करना चाहिए। आचार्य वट्टकेर ने कहा भी है___णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णरिंद अण्णतित्थं व।
देसविरदं देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा।। ५९४॥ मूलाचार असंयतजन, माता-पिता, असंयतगुरु, राजा, अन्यतीर्थ या देशविरत श्रावक, यक्षादि देव तथा पार्श्वस्थादि पांच प्रकार के पापश्रमणों को विरक्त साधु को वन्दना नहीं करने का विध न है।
श्रमण गृहस्थ का अभिनंदन, वन्दन, वैयावृत्य आदि कभी नहीं करते हैं। इस कलिकाल ने ऐसा देखने पर मजबूर कर दिया है कि कोई साधु नेताओं या धनवानों के गले में मोतियों की माला स्वयं पहना रहे हैं। तिलक लगा रहे हैं, कलावा आदि बांधकर सत्कार कर रहे हैं, स्वयं पद्मावती क्षेत्रपाल आदि की आराधना कर रहे हैं, करा रहे हैं जो श्रमणचर्या के विरुद्ध है। आगम में लौकिक जनों की संगति छोड़ने का उपदेश है क्योंकि उनकी संगति से वाचालता आती है दुर्भावना उत्पन्न होती है। श्रमण श्रावक के घर आहारार्थ अवश्य जाते हैं किन्तु आहार के बाद पारिवारिक चर्चा में नहीं बैठते हैं। इनके द्वारा इस काल में एकलविहार वर्जित है। अधिक शुभ क्रियाएं वर्तना योग्य नहीं, मंत्र सिद्धि, शास्त्र, अंजन, सर्प आदि की सिद्धि करना तथा इन्हीं कार्यों से अपनी आजीविका चलाना