Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 358
________________ 70 अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 दुर्जन, लौकिक जन, तरुणजन, स्त्री, पुंश्चली, नपुंसक, पशु आदि की संगति करना निषिद्ध मूलाचार में श्रमण के दस स्थितिकल्पों का विवेचन प्राप्त होता है अच्चेलक्कुदेसियसेज्जाहररार्यापेंड किदियम्म। वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो॥९॥ आचेलक्य, उद्देशिक, श्यातर (शैयागृह) पिंडत्याग, राजपिंडत्याग, कृतिकर्म व्रतज्येष्ठ, प्रतिक्रमण मास तथा पर्या (प!षण) ये दस कल्प हैं। श्रमणों को इनका पालन करते हुए संयम मार्ग में प्रवृत्त रहना चाहिए तथा जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पांच न हों उसमें श्रमण को नहीं रहना चाहिए। मूलाचार में श्रमण द्वारा श्रमणों के वैयावृत्य का भी विधान है। मूलाचार में शरीर संस्कार का पूर्ण निषेध है। पुत्र, स्त्री आदि में जिन्होंने प्रेमरूपी बन्ध न काट दिया है और जो अपने भी शरीर में ममता रहित हैं, ऐसे साधु शरीर में कुछ भी संस्कार नहीं करते हैं। मुख, नेत्र और दांतो का धोना, शोधना, पखारना, उबटन करना, पैर धोना, अंगमर्दन करना, मुट्ठी से शरीर का ताड़न करना, काठ के यन्त्र से शरीर का पीड़ना। ये सब शरीर के संस्कार हैं। धूप से शरीर का संस्कार करना, कण्ठ शुद्धि के लिए वमन करना, औषध आदि से दस्त लेना, अंजन लगाना, सुगंध तेल मर्दन करना, चन्दन कस्तूरी का लेप करना, सलाई बत्ती आदि से नासिकाकर्म व वस्तिकर्म (श्लेष्म) करना। नसों से लोही का निकालना ये सब संस्कार अपने शरीर में साधुजन नहीं करते। (836 से 838 तक) श्रमण के ठहरने योग्य स्थान पर विचार करते हुए कहा गया है- जिन स्थानों या क्षेत्रों में कषाय की उत्पत्ति, आदर का अभाव, इन्द्रिय विषयों की अधिकता, स्त्रियों का बाहुल्य, दु:खों और उपसर्गों का बाहुल्य हो ऐसे क्षेत्रों का श्रमण त्याग करे अर्थात् ऐसे स्थानों में नहीं ठहरना चाहिए। गाय आदि तिर्यंचनी, कुशील स्त्री, भवनवासी व्यन्तर आदि सविकारिणी देवियां, असंयमी गृहस्थ इन सब के निवासों पर अप्रमत्त श्रमण शयन करने, ठहरने या खड़े होने आदि के निमित्त सर्वथा त्याज्य समझते हैं। जो क्षेत्र राजा विहीन हो या जहाँ का राजा दुष्ट हो, जहाँ कोई प्रव्रज्या न लेता हो जहां सदा संयम घात की संभावना बनी रहती हो ऐसे क्षेत्रों का श्रमण हमेशा परित्याग करते हैं113 किन्तु धीर वैराग्य संयुक्त साधु पर्वत का गुफा, श्मशान, शून्य मकान, वृक्ष का मूल, जिनमन्दिर, धर्मशाला आदि क्षेत्रों का आश्रय लेते हैं इस तरह के वैराग्य वर्धक क्षेत्रों में रहने से साधुओं के चारित्र की अभिवृद्धि होती है। मूलगुणों का पालन करते हैं। मूलगुणों के प्रकाश में श्रमण की आवयकताएं सीमित होती हैं। वे जीवरक्षा के निमित्त एक पिच्छिका रखते हैं। शौच के निमित्त कमण्डलु रखते हैं। मूलाचार में श्रमण की तीन उपधियाँ बताई गई हैं-ज्ञानोपधि (पुस्तकादि), संयमोपधि (पिच्छकादि), शौचोपधि (कमण्डलु)4। वर्षावास के चार माह छोड़कर निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। समस्त परिग्रह से रहित साधु वायु की तरह नि:संग होकर कुछ भी चाह न रखकर पृथ्वी पर विहार करते हैं। छयालीस दोष बचाकर भोजन

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