Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 354
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 श्रमण और श्रमणाभास -- डॉ. श्रेयांसकुमार जैन श्रमणसंस्कृति में आदिकाल से ही श्रमण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण शब्द प्राकृत भाषा के 'समण' का रूपांतर है “श्राम्यति आत्मानं तपोभिरिति श्रमणः" अर्थात् जो तपों से अपनी आत्मा को श्रमयुक्त करता है, वह श्रमण है' या "श्राम्यति मोक्षमार्गे श्रमं विदधातीति श्रमणः" इस व्युत्पत्ति की अनुसार जो मोक्षमार्ग में श्रम करता है वह श्रमण कहलाता है। यह शब्द 'श्रमु खेदे" धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर कृदन्त रूप में भी बनता है। जो संपूर्ण प्राणियों के प्रति समताभाव रखता है, वह श्रमण है। मूलाचार में दिगम्बर साधु को विविध नामों से उल्लिखित किया गया है, उनमें प्रथम शब्द ही है समणोत्ति संजदीत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीतरागीति। णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति। मूलाचार८८८ अर्थात् श्रमण, ऋषि, मुनि साधु वीतराग,अनगार, भदन्त, दान्त और यति ये सम्यक् आचरण करने वाले साधुओं के नाम हैं। श्रमण का व्यापक विवेचन मूलाचार में है उसी के आश्रय से यहाँ संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। निश्चयनय की विवक्षा से प्रतिपादित श्रमण स्वरूप के साथ श्रमण की क्रियाओं को गर्भित किया गया है णिस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य। एगागी झाणरदो सव्व गुणड्ढो हवे समणो।।मूलाचार १००२ जो निसंग अन्तरंग बहिरंग परिग्रह के अभाव से मूर्छा रहित, निरम्भ पापक्रियाओं से निवृत्त आहार की चर्या में शुद्धभाव सहित एकाकी ध्यान में लीन होते हैं, वे श्रमण सर्वगुण संपन्न कहलाते हैं। वे कषायरहित होने के कारण ही संयत हैं जैसे कि कहा भी है अकसायं तु चरित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमिदि तम्हिकाले तक्काले संजदो होदि।मूलाचार ९८२ अकषायपने को चारित्र कहते हैं। कषाय के वश होने वाला असंयत है जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। श्रमण जिनेन्द्राज्ञा का सतत पालन करता हुआ अपने को क्रोधादि कषायों से बचाये रखता है। मूलाचार के तप:शुद्ध प्रकरण में आचार्य लिखते हैं पंचमहव्वयधारी पंचसु समिदीसु संजदा धीरा। पंचिंदियत्थ विरदा पंचम गई मग्गया सवणा॥९/८८३

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