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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
के लिए प्रयासरत रहता है। इस हेतु से कुछ शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि
“कुपात्रायाप्यपात्रय दानं देयं यथोचितम्।
पात्रबुद्धया निषिद्धं स्यान्निषिद्धं न कृपाधिया।" अर्थात्-कुपात्र के लिए और अपात्र के लिए भी यथा योग्य दान देना चाहिए क्योंकि कुपात्र तथा अपात्र के लिए केवल पात्र बुद्धि से दान देना निषिद्ध है, करुणा बुद्धि से दान देना निषिद्ध नहीं है। दान एवं त्याग में अंतरः
स्थूल रूप से दान एवं त्याग में कोई अंतर दिखाई नहीं देता क्योंकि दोनों शब्दों से एक ही अर्थ प्रकट होता है। दोनों शब्दों का प्रयोग छोड़ने के अर्थ में किया जाता है। लेकिन आगम का सूक्ष्मावलोकन करने पर त्याग एवं दान दोनों में कुछ मौलिक अंतर भी नजर आता है। आगम में त्याग का लक्षण बतलाते हुए आचार्य कुंदकुंद ने लिखा है कि__ "णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु।
जो तस्स हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं॥" अर्थात् जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि, जो जीव सारे द्रव्यों के मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने त्याग धर्म का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "व्युत्सर्जनं त्यागः।। अर्थात् व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है, जिसका अर्थ त्याग होता है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने व्यवहार त्याग धर्म की परिभाषा देते हुए लिखा है कि
“संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्यागः।" संयत के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग कहलाता है। अकलंकदेव ने भी त्याग धर्म को परिग्रह त्याग के रूप में परिभाषित किया है
___“परिग्रहस्य चेतनाचेतन लक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते।"
अर्थात् सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते है।" प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में भी त्याग धर्म की परिभाषा इसी प्रकार दी गयी है।
“निजशुद्धात्म परिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः।" अर्थात् निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति त्याग है। आगम में त्याग धर्म का वर्णन दोनों प्रकार से मिलता है। जहाँ आचार्यों ने व्यवहार त्याग धर्म की व्याख्या की है वहाँ त्याग एवं दान में एकरूपता दिखाई देती है। जहाँ निश्चय त्याग धर्म का वर्णन किया गया है। वहाँ त्याग का स्वरूप दान से उत्कृष्ट दिखाई देता है। दान एवं त्याग की समीक्षा करने पर उनके बीच कुछ मौलिक अंतर भी दिखाई देते हैं, जैसे- दान की आवश्यक शर्त है कि जो दान करता है उतना कम से कम दाता के पास अवश्य होना चाहिए। अन्यथा वह कहाँ से दे सकता है। पर त्याग में ऐसा नहीं है। जो वस्तु हमारे पास नहीं है उसके मोह को छोड़कर उसका भी त्याग किया जा सकता है।
दान के लिए दाता एवं पात्र दोनों का होना आवश्यक है पर त्याग करने के लिए इस