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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 से उपार्जित धन को दान के लिए श्रेष्ठ द्रव्य नहीं माना गया है इसलिए दान के उद्देश्य से पाप करके लक्ष्मी का संचय करना बुद्धिमानी नहीं है। दान का फल
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि "सत्पात्रों को दिया गया अल्पदान भी समय पर विशाल फल देता है, जैसे भूमि में बोया गया बट का छोटा सा बीज कालांतर में विशाल वृक्ष बनकर छाया देता है। 26
हरिवंश पुराण में लिखा है कि-"राजा श्रेयांस ने दान का फल बतलाते हुए भरत चक्रवर्ती आदि से कहा कि दान से पुण्य संचित होता है वह दाता को पहले स्वर्गादि रूप फल देकर अन्त में मोक्ष रूपी फल देता है। 127
दान देने के प्रभाव से मनुष्य भोगभूमि एवं स्वर्ग के सुखों को भोगते हैं यहाँ तक कि दान की अनुमोदना के पुण्य से पशु भी भोगभूमि में जन्म लेते हैं। दान के फल संबंधी विशेषाएं:
दान का फल सदैव एक समान प्राप्त नहीं होता, विधि, द्रव्य एवं दाता और पात्र की विशेषताओं से दान का फल भी प्रभावित होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा है कि-"यादृग्विवर्यते दानं, तावदासाद्यते फलम्।" अर्थात् जो जैसा दान देता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। आचार्य उमास्वामी ने दान की विशेषताओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि- “विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्ततिशेषः।" ___ अर्थात् दान के फल को उसकी विधि, द्रव्य, दाता एवं पात्र की विशेषताएं प्रभावित करती है। इनके हीन एवं निकृष्ट रहने से हीन फल की प्राप्ति होती है एवं इनके उत्कृष्ट रहने पर उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती है। दान की विधिः
दान सदैव विधि पूर्वक ही देना चाहिए, इसके लिए दाता को पात्र की योग्यता एवं उसकी आवश्यकता अवश्य देखनी चाहिए। तीन प्रकार के पात्रों में उत्कृष्ट पात्र केवल मुनिराज ही हैं, अतः उन्हें नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान देना चाहिए। शेष मध्यम एवं जघन्य पात्रों को उनके योग्य आदर सत्कार देते हुए दान देना चाहिए।
मुनियों को आहार दान देते समय की जाने वाली नवधाभक्ति का शास्त्रों में निम्न प्रकार से उल्लेख मिलता है- 1.प्रतिग्रहण (पड़गाहन करना), 2.उच्च स्थान पर बैठाना, 3.पाद-प्रक्षालन करना, 4.पूजन करना, 5.नमस्कार करना 6.मनशुद्धि, 7.वचन शुद्धि, 8. कायशुद्धि 9.आहार शुद्धि।
दान-विधि में शुद्धि का महत्त्वः श्री नेमिचन्द्राचार्य ने त्रिलोकसार में लिखा है कि"दुब्भाव असुचि सूदग पुष्फबई जाइसंकरादीहिं। कमदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायते॥