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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
वश में कर लिया है वही वीतरागी है। वे दोष हैं- जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, आश्चर्य, अरति, दु:ख, रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेदमल, राग, द्वेष, मरण। इन दोषों का नाम निम्नलिखित श्लोक में दिखाया गया है:
क्षुत्पिपासा- जरातंक- जन्मान्तक- भयस्मयः ।
न रागद्वेष मोहाश्च, यस्याप्तः सः प्रकीर्त्यते ॥६॥ र.क.कारिका-६ जिस आत्मा ने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय कर्म-दोष का नाश कर क्रमशः केवलज्ञान, केवलदर्शन, अक्षय-अनंत-सुख और अक्षय अनन्तशक्ति-बल के स्वामी हो गये हैं। वे ही सर्वज्ञ कहलाने योग्य हैं। ऐसे सर्वज्ञदेव को आप्त, परमेष्ठी, परमज्योति, केवलज्ञानी, विरागी, वीतरागी, विमल, कृतकृत्य आदि मध्य, अन्त से रहित, सर्वहित कर्ता, शास्त्र-हितोपदेशक, अर्हन्त, जिन, जिनेन्द्र, जीवन्मुक्त, सकल परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है।
सच्चे देव की तीसरी पहचान यह है कि- वह हितोपदेशी होता है। वह हितोपदेशी जीवन्मुक्त परमात्मा होता है, केवलज्ञान यानी संपूर्ण ज्ञान का धारी-स्वामी होता है, कर्मरूपी मल/ दोष से रहित होता है, कृतकृत्य या सिद्ध साध्य प्राप्त होता है, अनंत चतुष्टय का भण्डार होता है, विश्व के प्राणियों का कल्याण करने वाला होता है। रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का भव्य जीवों के लिए बिना किसी इच्छा से कल्याण का उपदेश देने वाले परमात्मा हितोपदेशी कहलाते हैं। ऐसे हितोपदेशी भगवान रागद्वेष आदि के बिना अपना प्रयोजन न होने पर भी समीचीन-भव्यजीवों को हित का उपदेश देते हैं क्योंकि बजाने वाले- शिल्पि के हाथ के स्पर्श से ध्वनि-शब्द करता हुआ मृदंग क्या अपेक्षा रखता है? अर्थात् नहीं। सर्वज्ञ सिद्धि__ आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी ने आप्त को दोष-रहित, सर्वज्ञ और आगम का स्वामी बताया है। आप्त के लिए तीन गुणों का होना आवश्यक है-वीतरागता, सर्व चराचर संसार को जानने वाला सर्वज्ञ और आगम का स्वामी या हितोपदेशी। इन तीन गुणों में सर्वजगत् का ज्ञाता- सर्वज्ञ को आचार्य ने युक्ति आगम और अनुमान से सिद्ध किया है। आचार्य आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि
सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा ।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥५॥ सूक्ष्म पदार्थ-परमाणु आदि, अन्तरित पदार्थ- काल के अन्त से सहित राम, आदि महापुरुष, दूरवर्ती पदार्थ- मेरु, हिमवन पर्वत आदि, किसी पुरुष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं। क्योंकि वे पदार्थ हमारे अनुमेय होते हैं। जो पदार्थ अनुमेय होता है वह किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष भी होता है। जैसे हम पर्वत में अग्नि को अनुमान से जानते हैं, किन्तु पर्वत पर स्थित पुरुष उसे प्रत्यक्ष से जानता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जो पदार्थ किसी के अनुमान के विषय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होते हैं। अतः हम लोग सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को अनुमान से जानते हैं अत: उनको प्रत्यक्ष से जानने वाला भी कोई