________________
अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने 'बोधपाहुड' में सच्चे देव के बारे में लिखा है
सो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेद णाणं च । सो देइ जस्स अत्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ॥२४॥ धम्मो दया विसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता ।
देवा ववगय मोहो उदययरो भव्व-जीवाणां ॥२५॥ जो धन, धर्म, भोग और मोक्ष का कारण- ज्ञान को देता है, वही देव है। संसारमें यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु होती है वही वस्तु अन्य को देता है। देव के पास अर्थ, धर्म, काम और प्रव्रज्या- दीक्षा (ज्ञान) है। दया से विशुद्ध धर्म सर्व परिग्रह से रहित प्रव्रज्या और मोह से रहित देव, ये तीनों भव्य जीवों का कल्याण करने वाले हैं। आचार्य विद्यासागर ने पूजनीय देव की वंदना करते हुए लिखा है कि
लोका-लोका-लोकित, करते पूर्ण ज्ञान से सहित रहें, विरागता से भरित रहे हैं दोष अठारह रहित रहें। जगहित के उपदेशक ये ही नियम रूप से आप्त रहें,
यही आप्तता नहीं अन्यथा, जिन-पद में मम माथ रहे। आर्यिका शिरोमणि ज्ञानमती माता जी ने महामंत्र-णमोकार पूजन में पूज्य देव के स्वरूप का वर्णन किया है
छयालिस सुगुण को धरै अरिहंत जिनेशा, सर्व दोष अठारह से रहित त्रिजग महेशा। ये घातिया को घात के परमात्मा हुए।
सर्वज्ञ, वीतराग और निर्दोष गुरु हुए । स्वामी कार्तिकेय के अनुसार "जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों से संयुक्त समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञदेव ही आराधना के योग्य है" जो परमसुख (मोक्ष) में क्रीड़ा करते हैं, या कर्मों को जीतने की इच्छा करते हैं, जो करोड़ों सूर्यों के भी अधिक तेज से दैदीप्यमान है जो धर्मयुक्त व्यवहार का विधाता है, जो लोक-अलोक को जानता है, जो अपने आत्मस्वरूप का स्तवन करता है, ऐसे विशेषणों (गुणों) से युक्त आचार्य, उपाध्याय, और साधु ही सच्चे देव हो सकते हैं।"
रागादि का सद्भाव रूप दोष, प्रसिद्ध ज्ञानावरणादि कर्म- इन दोनों का जिसमें सर्वथा अभाव पाया जाता है वह देव ही पूज्य है। ऐसे सच्चे देव केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनंतवीर्य (शक्ति) के स्वामी होने से पूज्य हैं। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार पूज्यदेव के स्वरूप का विश्लेषण
आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी ने 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' ग्रंथ में पूज्य देव के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा है कि जो वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी है, वही सच्चा देव आप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस परिभाषा में पूज्य देव के लिए प्रथम विशेषण है-वीतरागता, जिसका अर्थ है- जिसने आत्मबल से 18 दोषों को जीत लिया है, अपने