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अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010
कीर्तन
पूजन करना द्रव्य पूजा है। शुद्ध भावों के साथ शब्दों के द्वारा जिनेन्द्र देव का गुण करते हुए अष्ट द्रव्यों का विनय के साथ समर्पण करना द्रव्य पूजा है।' भावपूजा के साथ ही द्रव्यपूजा करना सार्थक है।
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धर्म के स्वामी ने सुखमय जीवन के लिए शुद्ध भावों के साथ अष्ट-द्रव्य पूजा करना उपयोगी बताया है। त्रियोग पूर्वक अष्ट-द्रव्य से किस गुण या या गुणी की पूजन करना चाहिए? या पूजन के लिए कौन योग्य व्यक्ति है? या पूज्य कौन है? पूजन का आधार / आश्रय कौन है ? अथवा श्रेष्ठ गुणों के धारी या स्वामी कौन हैं जिनकी हमें पूजा करनी चाहिए? – इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक है- सत्यार्थ देव, शास्त्र और के स्वामी देव, शास्त्र गुरु ही पूज्य हैं, उनके अनन्त गुण ही हमारे पूजा के आधार हैं या आश्रय है। केवलज्ञान, केवल दर्शन, अक्षय सुख व शांति अक्षय आत्मबल - जैसे गुण एवं इन गुणों के स्वामी- कंवली, अरिहंत, सर्वज्ञ, बीतराग देव ही पूज्य हैं। पूजा के आधार है। शुभ स्वरूप देव, शास्त्र गुरु की उपासना से पूजक की आत्मा पवित्र होती है और आत्महित का मार्ग प्रशस्त होता है।
गुरु । रत्नत्रय
हमारा जीवन सुखमय हो, इसके लिए हम भगवान या इष्टदेव की आराधना करते हैं। हम जिस इष्टदेव, गुरु की उपासना एवं शास्त्र अध्ययन करना चाहते हैं। उस इष्टदेव के पास कौन-कौन सी उपलब्धियां हैं, या कौन-कौन विशेषताएँ या गुण हैं या गुण के स्वामी हैं या उनका क्या स्वरूप है, या रूप है? या उनकी क्या पहचान है? या किस कारण हमारा जीवन मंगलमय हो सकता है? या सच्चे देव शास्त्र, गुरु की क्या पहचान है ? इन सब बातों पर विचार आवश्यक है।
उक्त शंका का समाधान हमारे जैनाचार्य करते हुए कहते हैं कि जो आत्मा वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है, वही परमात्मा हमारे लिए पूज्य है। जो यथार्थ आप्त द्वारा उपदिष्ट वाणी को शास्त्रों को लिपिबद्ध किया गया है वह शास्त्र पूज्य है। जो वीतराग के उपदेश को, सदाचार को स्वयं जीवन में जीता है और उसे ही भव्य जीवों के लिए भी उपदेश देता है वही सच्चा गुरु पथप्रदर्शक पूज्य है।
पूज्य देव का स्वरूप
जो आत्मा या परमात्मा वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होता है, वही देवता पूजनीय है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने पूज्य देवता के स्वरूप का निरूपण करते हुए 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' ग्रंथ में लिखा है
आप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना ।
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भवितव्यं नियोगेन नान्यथा हयाप्तता भवेत् ॥१५॥
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नियमपूर्वक आप्त (देव) को दोष रहित वीतराग, सर्वचराचर जगत् को जानने वालासर्वज्ञ और वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक - आगम का स्वामी मोक्षमार्ग का प्रणेता हितोपदेशी होना चाहिए; क्योंकि अन्य प्रकार से आप्तपना नहीं हो सकता अर्थात् जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी नहीं है, वह पुरुष कभी सच्चा या पूज्यदेव नहीं हो सकता है।