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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
“रत्नत्रयवद्भ्यः स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्नत्रयसाधनादित्सा वा।" अर्थात् रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रयोग करने की इच्छा का नाम दान है।' दान के भेद :
आगम में दान के भेदों की व्याख्या करते हुए सामान्यतः आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, अभयदान इन चार प्रकार के दानों का वर्णन किया गया है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आहार, औषध, उपकरण, आवास के भेद से दान के चार भेद बताये हैं।
सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है- "त्याग दान है। वह आहार दान, अभयदान और ज्ञानदान के भेद से तीन प्रकार का है।
महापुराणकार आचार्य गुणभद्र ने दान शब्द के स्थान पर दत्ति शब्द का प्रयोग करते हुए दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति के भेद से दत्ति के चार भेद किये हैं।'
आचार्य पद्मनंदी पंचविंशतिका में अभयदान, औषधदान, आहारदान, शास्त्रदान के भेद से दान के चार भेद किये हैं।'
दान के परंपरागत भेदों से हटकर सागारधर्मामृत में पं. आशाधर ने सात्त्विक, राजसिक और तामसिक दानों को भी उद्धरित किया है।'
उन्होंने लिखा है कि जिस दान में अतिथि का कल्याण हो, जिसमें पात्र की परीक्षा व निरीक्षण स्वयं किया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हों, उसे सात्विक दान कहते हैं। जो दान केवल अपने यश के लिए किया गया हो, जो थोड़े ही समय के लिए सुन्दर और आश्चर्यचकित करने वाला हो और दूसरे से दिलाया गया हो उसे राजस दान कहते
जिसमें पात्र-अपात्र का कुछ ध्यान न दिया गया हो, अतिथि का सत्कार न किया गया हो, जो निन्द्य हो और जिसके सब उद्योग दास और सेवकों से कराये गये हों, उस दान को तामस दान कहते हैं।
सामान्य रूप से सभी शास्त्रों में चार प्रकार के ही दान का उल्लेख किया गया है। पर कहीं-कहीं ज्ञान दान को शास्त्र दान का उपकरण दान कहा गया है एवं अभय दान के स्थान पर आवास दान या वसतिकादान कहा गया है। उक्त नामांतर पात्रों की आवश्यकतानुसार किया गया है।
वर्तमान समय में अर्थ की प्रधानता है। इस अर्थ प्रधान युग में लोग संपत्ति का संचय करके उसे केवल विषय भोग एवं विलासिता की सामग्री को क्रय करने एवं शादी-विवाह एवं अन्य घरेलू कार्यों में ही खर्च करते हैं। आज अनेक लोगों की धारणा बनती जा रही है कि दान करना अपव्यय है एवं इससे किसी प्रकार के फल की प्राप्ति नहीं होती। इस संदर्भ में जैनाचार्यों ने हमारे श्रावक जीवन में दान को आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य बतलाया है। रयणसार में आचार्य कुंदकुंद देव ने स्पष्ट लिखा है कि