Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 344
________________ 56 अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 जैन धर्म में दान वैशिष्ट्यः शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में -- पंकज कुमार जैन जैन धर्म में दान के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखा गया है। जैन धर्म में आत्मा के अविनाशी गुणों में दान को भी सम्मिलित किया गया है। दानांतराय कर्म के क्षय से आत्मा में क्षायिकदान नामक गुण प्रगट होता है। एक अपेक्षा से दान क्षायिक गुण होने के कारण आत्मा के साथ अरिहंत एवं सिद्ध अवस्थाओं में भी विद्यमान रहता है। इस संदर्भ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में लिखा है कि "दानांतराय कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त प्राणियों के समुदाय का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है।" वे आगे लिखते हैं कि- "यद्यपि अभयदानादि के होने में शरीर नाम कर्म एवं तीर्थकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है, परन्तु सिद्धों के नाम कर्म नहीं होने से अभयदानादि प्राप्त नहीं होते, तो भी जिस प्रकार सिद्धों के केवल ज्ञान रूप से अनन्तवीर्य का सद्भाव माना गया है, उसी प्रकार परमानन्द के अव्याबाध रूप से क्षायिक दान का भी सिद्धों में सद्भाव उक्त संदर्भो से हम स्पष्ट जान सकते हैं कि दान कोई सामाजिक व्यवस्था का वित्तप्रबंधन नहीं है अपितु यह चित्त-प्रबंधन का एक उत्कृष्ट माध्यम है। वर्तमान समय में दान शब्द ने बड़ा ही संकुचित अर्थ ग्रहण कर लिया है। आज जनसामान्य विधान एवं पंचकल्याणक महोत्सवों में होने वाली बोलियों में दिये जाने वाले धन को ही दान समझने लगा है। अनेक अवसरों पर ऐसा लगता है कि प्रभावना के कार्यों पर होने वाले सामाजिक व्यय को ही हम दान का उत्कृष्ट स्वरूप मान बैठे हैं। आवश्यकता है कि दान स्वरूप और उसके माहात्म्य को शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में समाज के समक्ष रखने की कोशिश की जाये। दान का लक्षण : अनेक आचार्यों ने दान की विभिन्न परिभाषायें दी हैं। इनमें प्रमुखरूप से आचार्य उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थ सूत्र में दान का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ___ "अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम्" अर्थात् स्वयं अपना एवं दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु त्याग करना दान है। इसी लक्षण को स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि “परानुग्रहबुद्धया स्वस्यातिसर्जनं दानम् ।" अर्थात् दूसरे का उपकार हो इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है।' धवलाकार आचार्य वीरसेन ने दान का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि

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