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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 अवश्य होना चाहिए और जो पुरुष उनको प्रत्यक्ष से जानता है वही सर्वज्ञ है। इस प्रकार 'सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः कस्यचित्, प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्, इस अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। लेकिन वह सर्वज्ञ अर्हन्त देव ही है इसकी सिद्धि के लिए आचार्य लिखते हैं
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्राविरोधिवाक् ।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥६॥ हे भगवान् ! पहिले जिसे सामान्य से वीतराग तथा सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है, वह आप अर्हन्त ही हैं। आपके निर्दोष वीतराग होने में प्रमाण यह है कि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं। आपके इष्ट तत्त्व मोक्षादि में किसी प्रमाण से बाधा नहीं आने के कारण यह निश्चित है कि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं।
अर्हन्त ने जिन मोक्ष आदि तत्त्वों का उपदेश दिया है उनमें किसी प्रमाण से विरोध न आने के कारण अर्हन्त के वचन युक्ति और आगम से अविरोधी सिद्ध होते हैं और अविरोधी वचन अर्हन्त की निर्दोषता को घोषित करते हैं। इसलिए स्वभाव, देश और काल विप्रकृष्ट परमाणु आदि पदार्थों को जानने वाले अर्हन्त ही हैं। अर्हन्त के अतिरिक्त अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि अन्य सब सदोष हैं। सदोष होने का कारण यह है कि उनके वचन युक्ति और आगम से विरुद्ध हैं। जिन्होंने जिन तत्त्वों का उपदेश दिया है वह प्रमाण से बाधित है। पूजनीय शास्त्र का स्वरूप ___ आराधना का द्वितीय आधार आगम है। पूजनीय आगम वीतरागी अर्हन्त द्वारा प्रतिपादित अतिशय बुद्धि के धारक गणधर देव के द्वारा धारण किये गये राग-द्वेष की भावना से रहित आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं विद्वानों द्वारा लिपिबद्ध किये गये शास्त्र पूज्यनीय शास्त्र कहलाते हैं। जिनागम, आगम, शास्त्र, जिनवचन, ग्रंथ, सिद्धान्त, प्रवचन, उपदेश, जिनवाणी, दिव्यध्वनि, दिव्योपदेश, जिनशासन, सरस्वती, शारदा, द्वादशांगवाणी, स्याद्वादवाणी इत्यादि इसके अनेक नाम हैं। समन्तभद्राचार्य ने रत्नरकण्डक श्रावकाचार में सच्चे शास्त्र का स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि
आप्तोपज्ञमनुल्लड्.घ्य- मदृष्टेष्टविरोधकं ।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनं ॥९॥१० अर्थात् जो वीतरागी-आप्त द्वारा कहा जाता है, इन्द्रादिक देवों के द्वारा अनुलंघनीय है अर्थात् ग्रहण करने योग्य है अथवा अन्य वादियों के द्वारा अखण्डनीय है, प्रत्यक्ष-परोक्ष आदि प्रमाणों से जो बाधित नहीं है, जो वस्तु स्वरूप प्रतिपादक है, जो सबका हितकारक है और मिथ्यात्व को नष्ट करने वाला है, वही सच्चा शास्त्र कहलाता है। इस स्वरूप का समर्थन करते हुए आचार्य विद्यासागर जी महाराज 'रयणमंजूषा' में लिखते हैं:
“प्रत्यक्षादिक अनुमानादिक प्रमाण से अविरोधी हो, वीतराग सर्वज्ञ कथित हो नहीं किसी से बाधित हो।