Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 341
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 भागीदार बनाना इस अनुयोग का कार्य है। सत्पात्रों को दान देना, चैत्य-चैत्यालयों का निर्माण करना आदि, व्रत संयम नियमों को पालन करना, स्वाध्याय, तप धारण करना आदि शुभ कार्यों में उपयोग लगाने आदि का उपदेश यह अनुयोग देता है। जिन द्वारा प्रतिपादित धर्म में दृढ़ श्रद्धान करना, उनके द्वारा बताये गये सप्त तत्त्वों एवं नव पदार्थो को ज्ञानकर उनमें प्रगाढ़ विश्वास रखना आदि का ज्ञान प्रथमानुयोग के अध्ययन से प्राप्त होता है। यह अनुयोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों का स्वरूप ज्ञान बतलाने वाला अनुयोग ग्रंथ है। २. करणानुयोग- जो लोक-अलोक के विभाग का, कल्पकालों के परिवर्तन, चार गतियों के परिभ्रमण का कथन करता है, वह करणानुयोग कहलाता है। इसको गणितानुयोग, लोकानुयोग के नाम से भी जाना जाता है। करण परिणामों को कहते हैं, इस अनुयोग में जीव के परिणामों का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। इस अध्याय में जैनागम मान्यभूगोल, खगोल संबन्धी विषयों का विस्तार से वर्णन है। नरक, द्वीप, समुद्र, कुलाचल-सुमेरुपर्वत, देवलोक, स्वर्ग विमान आदि इस अनुयोग के प्रतिपाद्य विषय हैं। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार लोकालोकविभक्तेयुगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथामति रवैति करणानुयोगं च॥१४ प्रथमानुयोग की तरह मनन रूप श्रुतज्ञान, लोक-अलोक के विभाग को युगों के परिवर्तन और चारों गतियों के लिए आदर्श दर्पण के समान करणानुयोग जानता है। गणितसार, पण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूद्वीप-पण्णत्ति आदि करणानुयोग के प्रमुख ग्रंथ है। ३. चरणानुयोग- गृहस्थों एवं मुनियों के आचार सम्बन्धी नियमों के निरूपक अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं। इस अनुयोग में गृहस्थ और गृहत्यागी मुनियों के आचार-विचार का वर्णन होता है। कोई भी भव्य पुरुष किस उपाय से सदाचार को प्राप्त करें, किस तरह से उसकी रक्षा करें और किस प्रकार से उसे पल्लवित करें, इन सब बातों का स्पष्ट उल्लेख चरणानुयोग में होता है। जिसे जानकर भक्त, भगवान की ओर सदाचार पालन करते हुए जाता है। यह भी सम्यग्ज्ञान का एक अंग है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार गृहमेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्तिवृद्धि रक्षांगम् । चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति॥१५ गृहस्थों और साधुओं के चरित्र के उद्भव, उसके विकास और उसकी रक्षा के अंग स्वरूप/ कारणभूत अथवा इन तीन अंगों को लिए हुए जो शास्त्र आत्मानुसंधान की दिशा में प्रवृत्त है उसे चरणानुयोग कहते हैं। मूलाचार, भगवती आराधना, अनगार धर्मामृत, सागार- धर्मामृत, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि चरणानुयोग के ग्रंथ हैं। ४. द्रव्यानुयोग- जिस शास्त्र में जीव, अजीव, पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, आत्मा आदि

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