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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
पूजा के आधार पर- देव, शास्त्र और गुरु
- डॉ. बसन्त लाल जैन
मानव जीवन का परमलक्ष्य मोक्षोपलब्धि है। मोक्ष जीवन के परम आनन्द की अवस्था का नाम है। मोक्षरूपी आनन्द की प्राप्ति के लिए पूजा, आराधना/उपासना या शक्ति एक साधन है। भगवान की भक्ति के द्वारा ही परम सुख की प्राप्ति होती है। दिगम्बर जैन परंपरा के आचार्य पद्मनन्दि जी ने सुखमय जीवन के लिए छह करणीय कर्त्तव्यों का निर्देश 'पद्मनंदी पंचविंशतिका' ग्रंथ में दिया है
देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने। गृहस्थ को अपने जीवन में देवपूजा, गुरु उपासना, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप और दान-इन छह कर्तव्यों का पालन प्रतिदिन करना चाहिए।
इन छह कर्त्तव्यों में प्रथम देवपूजा को स्थान दिया जाता है क्योंकि देवपूजा के साथ बाकी के पाँच कर्तव्य भी कड़ी की भांति जुड़े हुए हैं। ये देवपूजा आदि आराधना/ भक्ति के ही अंग हैं। परमात्मा का पूजन, गुरु की उपासना, शास्त्र अध्ययन, संयम, तप और दान- इन छह कर्तव्यों के पालन से मानव का हृदय, वचन, और काय शुद्ध हो जाता है। इन तीन योगों की शुद्धि होने से संपूर्ण मानव जीवन पवित्र हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन पावन होने से क्रमशः पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय जीवन पवित्र हो जाता है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन शुद्ध, पवित्र होने से राष्ट्र की मानसिकता/ विचारधारा कल्याणकारी हो। लौकिक कल्याण होने पर परंपरा से आध्यात्मिक कल्याण भी संभव है। अतः आध्यात्मिक सुख-अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हेतु देवपूजा या भक्ति आवश्यक है।
पूज्य पुरुषों के गुणों के प्रति अनुराग रखना भक्ति कहलाती है या परमात्मा के प्रति अनुराग भाव रखना पूजा है। परमात्मा के गुणों की प्राप्ति के लिए उनके गुण एवं उनके प्रति श्रद्धापूर्वक आदर सत्कार करना पूजा कहलाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी रत्नत्रय-प्राप्ति के लिए रत्नत्रय प्रदाता देव, शास्त्र और गुरु की उपासना/ आराधना करना पूजा कहलाती है। आचार्य पूज्यपादस्वामी ने अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी तथा उनके प्रवचनों में विशुद्ध भावपूर्वक अनुराग को पूजा माना है।
परमात्मा की पूजा भावपूर्वक द्रव्य से की जाती है। इसलिए पूजन में द्रव्य और भाव-इन दो तत्त्वों का विशेष महत्त्व है। मन से इष्ट देवों का अर्चन करना भावपूजा है। परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र देव के अनन्त गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है वह भाव पूजा है। देव, शास्त्र गुरु का मन, वचन और कायपूर्वक अष्ट द्रव्यों से