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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
आधुनिक संदर्भ में 'सामायिक' की उपादेयता
- डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
'सामायिक' जैनधर्म की एक मौलिक अवधारणा है जिसमें संपूर्ण जैन दर्शन का सार समाहित है। यदि यह पूछा जाए कि एक शब्द में भगवान् महावीर का धर्म क्या है तो इसका उत्तर होगा-'सामायिक'। प्राचीन काल से ही 'सामायिक' करने की परम्परा संपूर्ण जैन समाज में चली आ रही है। दिगम्बर हो या श्वेताम्बर; गृहस्थ हो या मुनि सामायिक का महत्त्व प्रत्येक स्थल पर है।
___ मुनियों के छह आवश्यकों में सामायिक' प्रथम आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने "समणो समसह दुक्खो' (प्रवचनसार गाथा 1/4) कहकर समण का लक्षण ही सुख
और दुःख में समभाव रहने वाला किया है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में समण का लक्षण करते हुए अपराजितसूरि ने कहा
'समणो समानमणो समणस्स भावो सामण्णं क्वचिदप्यनगुगतरागद्वेषता
समता सामणशब्देनोच्यते। अथवा सामण्णं समता।' अर्थात् 'जिनका मन सम है वह समण तथा समण का भाव 'सामण्णं' (श्रामण्य) है। किसी भी वस्तु में राग-द्वेष का अभाव रूप समता 'सामण्णं' शब्द से कही जाती है। अथवा सामण्णं को समता कहते हैं। __ मात्र मुनि ही नहीं वरन् गृहस्थ भी मुनियों की तरह सामायिक धारण करता है और समस्त सावध योग से रहित, समता में स्थित सामायिक करने वाला गृहस्थ भी उतने क्षण मुनि सदृश हो जाता है। इसकी चर्चा भी जैनाचार्यों ने स्थान-स्थान पर की है। आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि सामायिक आश्रित गृहस्थ चारित्र मोहोदय के सद्भाव में भी महाव्रती मुनि के समान होता है
सामायिकाश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात्। भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चारित्रमोहस्य॥
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-श्लो.150) कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी “जो कुव्वादि साइयं सो मुणिसरिसो हवे ताव॥"(गाथा-357) कहकर यही भाव प्रकट किया गया है।
आचार्य बट्टकेर मूलाचार (1/23) में लिखते हैं कि जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दु:ख आदि में रागद्वेष न करके समभाव रखना समता है और इस प्रकार के भाव को सामायिक कहते हैं।
सामायिक की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए केशववर्णी ने लिखा है 'सम'