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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 देती है, उसे मत मारो।
हिंसा के दो कारण हैं- स्वार्थ और विद्वेष। अथर्ववेद में भी स्थान-स्थान पर प्रमाद एवं विद्वेष न करने का कथन किया गया है। यथामा जीवेभ्यः प्रमदः।१३ जीवों से प्रमाद मत करो।)
सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥१४ (मैं तुम्हारे समान ह्रदय, समान प्रीतियुक्त मन तथा अविद्वेष भाव को स्थापित करता हूँ। तुम एक दूसरे से ऐसे प्यार करो जैसे गाय नवजात बछड़े को प्यार करती है।
उपर्युक्त संदर्भो में स्पष्ट है कि वेदों की मूल भावना अहिंसामय सुख शांति की ही है। वहां जहां राक्षसों की हिंसा का भी कथन है, वह सुख-शान्ति की स्थापना के लिए विरोधी हिंसा समझना चाहिए।
जैन धर्म की तो आधारशिला ही अहिंसा है। वहाँ अहिंसा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जैनाचार में प्रमाद के योग से स्व-पर के प्राणों के पीड़न को हिंसा माना गया है'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने एक सद्गृहस्थ की अहिंसा का वर्णन करते हुए लिखा है
संकल्पात् कृतकारितमननाद् योगत्रयस्य चरसत्त्वान्।
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद् विरमणं निपुणः॥१६ मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत, कारित, अनुमोदन से त्रस जीवों को जो नहीं मारता, वह स्थूल हिंसा से विरक्त होता है। अर्थात् हिंसाणुव्रत या एक सदगृहस्थ की अहिंसा है।
हिंसा चार प्रकार की कही गई है- संकल्पी, उद्योगी, आरंभी और विरोधी। बिना किसी उद्देश्य के संकल्प प्रमाद से ही जाने वाली हिंसा संकल्पी है। एक जैन गृहस्थ चतुर्विध हिंसा में से संकल्पी हिंसा का नियम से त्याग करता है। शेष हिंसकों को वह हिंसा रूप तो समझाता है, किन्तु उनसे बच नहीं पाता है। सागारधर्मामृत में कहा गया है
आरंभेऽपि सदा हिंसां सुधी: सांकाल्पिकी त्यजेत्।
ध्वतोऽपि कर्णकादुच्चैः पापोऽनन्नपि धीवरः॥१७ बुद्धिमान मनुष्य आरंभ में भी संकल्पी हिंसा को सदा त्याग दे। क्योंकि असंकल्प पूर्वक जीवों को घात करने वाले किसान से संकल्प करके जीवों का घात न होने पर भी धीवर अधिक पायी है।
आचार्य शुभचन्द्र ने हिंसक पुरुष के निस्पृहता, महत्ता, निराशता, दुष्कर तप, कायक्लेश एवं दान आदि सभी धर्मकार्यों को व्यर्थ माना है। मनुस्मृति में 'यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा। कहकर जहां याज्ञिक हिंसा को पाप नहीं माना है, वहां जैनाचार किसी भी तरह की हिंसा को अपायरूप नहीं मानता है।
2. सत्य- सत्य को सभी भारतीय संस्कृतियों में मानव जीवन का प्रशस्ततम गुण माना