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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में सत्याणुव्रत एवं भारतीय कानून
-सतेन्द्र कुमार जैन
भारत धर्म प्रधान देश के साथ ही कर्म प्रधान देश भी है। इसमें जितना महत्त्व धर्म को दिया जाता है, उतना महत्त्व कर्म को भी दिया जाता है। धर्म की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए पुण्य-पाप का विवेचन करके धार्मिक व्यक्तियों को पाप से बचने का निर्देश दिया है परन्तु जो व्यक्ति धर्म से अनभिज्ञ हैं या धर्म में जिनकी आस्था नहीं है, उन व्यक्तियों के लिए ऋषभदेव ने सर्वप्रथम कर्म स्वरूप दण्ड का विधान किया। गल्ती करने वाले को पश्चाताप स्वरूप हा शब्द का विधान किया, जिसका अर्थ गलती को स्वीकार करना है। परन्तु मानव जब अपनी गलती को दुबारा करने लगा तो उसके लिए हा शब्द के साथ मा शब्द का प्रयोग भी होने लगा जिसका अर्थ नहीं करूँगा। इन दो दण्डों के प्रयोग के बाद भी जब मानव की प्रवृत्ति पाप कर्म से रहित नहीं हुई तो धिक् शब्द के द्वारा अपने को धिक्कार करने का दण्ड प्रचलित हुआ।
ऋषभदेव ने अपना राज्य अपने पुत्र भरत को देकर दीक्षा धारण की। जिससे भरत चक्रवर्ती भरतवर्ष का राजा बना। उसके समय में पाप कर्म की प्रवृत्ति अधिक होने लगी और पूर्व में निर्धारित दण्ड का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब भरत ने उनके लिए शारीरिक दण्ड को सुचारू रूप से चलाया और व्यक्ति के मन,वचन,काय की क्रिया के अनुसार न्याय-अन्याय कर उसको दण्ड देने का विधान किया। भरत चक्रवर्ती ने धर्म और कर्म के अनुसार दण्ड का स्वरूप निर्धारित किया। काल की प्रगति के साथ-साथ राजाओं की व्यवस्था में परिवर्तन हुआ और जीवों की मानसिकता में भी परिवर्तन हुआ। जिससे पाप-पुण्य प्रवृत्ति में अन्तर आया और उन पाप प्रवृत्तियों के दमन के लिए दण्डों की व्यवस्था में बढ़ोत्तरी होती गई। शनैः शनैः राजाओं की व्यवस्था में भी अराजकता का प्रभाव पड़ा और लोगों ने राजतांत्रिक प्रणाली की पूर्ण सहायता ली और भारतदेश में न्यायालय की स्थापना की। परन्तु इस व्यवस्था में भी अंग्रेजों ने देश-विदेश, अपने-पराये का भेद कर, भेद-भाव करना प्रारंभ कर दिया। इससे लोगों को पूर्ण न्याय नहीं मिल पाता था। लोगों ने न्यायाधीशों का विरोध किया तथा उनके द्वारा किये गये अन्याय का बहिष्कार किया। फलस्वरूप भारतदेश 1947 को स्वतंत्र हो गया। स्वतंत्रता के पश्चात् भारतदेश की न्यायिक व्यवस्था को सुचारुरूप से चलाने के लिए संविधान का निर्माण किया गया। जिसमें जातिगत भेदभाव, क्षेत्रगत भेदभाव, व्यक्तिगत भेदभाव से रहित कानून का निर्माण किया गया। इस संविधान में कानून का निर्माण करते समय धार्मिक भावनाओं और कर्म को पूर्ण