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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
जीव वहो अप्प वहो, जीवदया अप्पणो दया होइ। ता सव्व जीवहिंसा परिचत्ता अत्तकामेहि। जह ते न पियं दुक्खं आणिय एमेव सव्वजीवाणं।
सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं॥ अर्थात् जीव का वध करना अपना ही वध करना है, जीवों पर दया करना अपने पर दया करना है अतः सभी जीवों की हिंसा अपने ही प्रिय की हिंसा समझना चाहिए। जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य सभी जीवों को दु:ख प्रिय नहीं है अतः सब प्राणियों पर आत्मौपम्य दृष्टि दयाभाव रखना चाहिए।
जिस तरह जंगल अकेले सुगन्धित फूल युक्त पेड़-पौधों का नाम नहीं है, अपितु उसमें तीक्ष्ण कांटों वाले पेड़ भी सम्मिलित होते हैं उसी तरह राष्ट्र भी एक जैसे लोगों से नहीं बनता। यहाँ अच्छे होते हैं तो बुरे भी, धार्मिक होते हैं तो अधार्मिक भी। काम करने वाले होते हैं तो कामचोर भी। इसलिए मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थभाव अपेक्षित है। जैन श्रावक आचार्य अमितगति के सामायिक पाठ को प्रतिदिन पढ़ता है और इन भावनाओं का अनुशरण भी करता है
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं। माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ,
सदा ममात्मा विदधातु देव ॥१२ अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव, दु:खी और क्लेशयुक्त जीवों के प्रति करुणा (कृपा) भाव तथा प्रतिकूल विचार वालों के प्रति माध्यस्थ भाव रखें। हे देव! मेरी आत्मा सदा ऐसे भाव धारण करे। 'मेरी भावना' में भी पढ़ते हैं कि
मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे दीन दुःखी जीवों पर मेरा उर से करुणास्रोत वहे। रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै॥१३ श्रावक की सद्भावना राष्ट्र और जन-कल्याण की होती है। उसे राष्ट्र के हित में सर्व और स्वयं का हित दृष्टिगोचर होता है अत: वह भावना भाता है कि
संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीनकों औ यतिनायकों को। राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन शान्ति को दे॥ होवे सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा। होवे वर्षा समय पै, तिलभर न रहे व्याधियों का अंदेशा॥