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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
रूप में कल्याणकारी सहायक सिद्ध होते हैं। अनर्थदण्ड व्रत के विषय में छहढाला में पं. दौलतराम जी ने कहा है कि
काहू की धन हानि किसी जय-हार न चिंतै। देय न सो उपदेश होय अघ बनज कृषीतें॥ कर प्रमाद जल भूमि वृक्षा पावक न विराधे। असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधे॥ राग-द्वेष करतार कथा कबहुं न सुनीजे।
औरहु अनरथ दंड हेतु अघ तिन्हें न कीजे॥२९ जिन कार्यों से कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होते हैं वे क्रियाएं अनर्थ कहलाती हैं। मन, वचन, काय रूप योगों की प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं। अतः मन, वचन, काय से ऐसी कोई क्रिया या विचार नहीं करना जिससे पाप की स्थिति बनती हो। यह स्थिति अनर्थदण्ड विरति (व्रत) में होती है।
अनर्थदण्ड के पाँच भेद बताये गये हैं1- अपध्यान- किसी के धन के नाश का, किसी की जीत और किसी की हार
का विचार नहीं करना। 2- पापोदेश- जिसमें पाप बंध अधिक होता है; ऐसे खेती, व्यापार आदि करने का
उपेदश नहीं देना। 3- प्रमाद चर्या- बिना प्रयोजन पानी बहाने, पृथ्वी खोदने, वृक्ष काटने और जलाने
का त्याग करना। 4- हिंसादान- यश की चाह से तलवार, धनुष, हल आदि हिंसा के उपकरण दूसरों
को नहीं देना। 5- दुःश्रुति- जिन कथा-कहानियों के सुनने से मन में राग-द्वेष उत्पन्न होता है,
उनको नहीं सुनना। इन पाँच अनर्थदण्डों के अतिरिक्त और जो भी पाप के कारण अनर्थदण्ड हैं उन्हें भी नहीं करना चाहिए।
आज के परिदृश्य में अनर्थदण्डों की स्थिति चरम सीमा पर है। खोटे विचारों से व्यक्ति व्यथित भी होते हैं; किन्तु करते भी हैं जिस पर रोक लगनी चाहिए।
एक बार एक समाज शास्त्री से किसी ने पूछा कि लोग दु:खी क्यों हैं? तो उत्तर आया कि नब्बे प्रतिशत तो इसलिए दु:खी हैं कि उनका पड़ोसी सुखी क्यों है ? हम भले ही वैश्विक हो गये हों किन्तु इससे अपध्यान की स्थिति भी बढ़ी है। युद्धों की स्थिति आते ही हम युद्धविराम के स्थान पर किसी की जीत किसी की हार के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। व्यापार के नाम पर पापोपदेश खूब चल रहा है। अब व्यावसायिक हिंसा को लोग हिंसा नहीं मानते। प्रमाद चर्या भी बढ़ी है। भूमि खनन, वृक्षों की कटाई और जल का अपव्यय बहुत होने लगा है। हिंसा के उपकरण बनाये भी जा रहे हैं और बेचे भी जा रहे हैं। परिणामों