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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 ___अर्थ की बढ़ती लालसा ने अर्थ और परमार्थ दोनों को ही छला है। अर्थ के लिए हिंसक संघर्ष आम बात हो गई है। हिंसा का अर्थ के लिए उपयोग सही नहीं है। आज सरकारें बदलने के लिए धनबल और बाहुबल का सहारा लिया जाने लगा है जबकि लोकतंत्र में जनबल ही सर्वोपरि होता है। इस अनर्थ से अर्थ का प्रलोभन दूर होने पर ही बचा जा सकता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज लिखते हैं कि- यह कटु सत्य है
कि
“अर्थ की आँखें परमार्थ को देख नहीं सकती अर्थ की अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को
निर्लज्ज बनाया है। १९ श्रावक अर्थ का संचय अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही करता है। वह धनादिक पदार्थों को ही नहीं घटाता अपितु अपनी आवश्यकताओं को भी कम करता जाता है ताकि उसके संचित साधन अन्य के काम आ सकें। इसीलिए वह अपनी स्वअर्जित संपत्ति में से निरंतर दान किया करता है। यह दान राष्ट्र के कल्याण में सहायक बनता है। राष्ट्र के दीन-दुखी प्राणियों को अभय प्रदान करता है।
तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी ने अणुव्रतों के अतिचारों का वर्णन किया है जिनसे जैन श्रावक बचता है। जैन श्रावक जहाँ अहिंसाणुव्रत के रूप में बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण एवं अन्नपाननिरोध से बच कर प्राणियों को अभय दान देता है।
सत्याणुव्रत के रूप में मिथ्या उपेदश, रहोभ्याख्यान, कूट लेख क्रिया, न्यासापहार और साकार मंत्र भेद से बचता है। ___ अचौर्य अणुव्रत के रूप में-स्तेन प्रयोग (चोर को चोरी करने की स्वयं प्रेरणा करना, दूसरे से प्रेरणा करवाना, कोई चोरी करता हो तो उसकी सराहना करना, चोरी का उपाय बताना), तदाहृतादान (चोरी का माल खरीदना), विरुद्ध राज्यातिक्रम (राज नियम के विरूद्ध कर चोरी करना), हीनाधिक मानोन्मान (बेचने और खरीदने, तोलने और बेचने तथा नापने आदि के बाट, तराजू और कम या अधिक माप या वजन के रखना), प्रतिरूपक व्यवहार(कीमती वस्तु में कम कीमत की वस्तु मिलाना) आदि कार्यों को चोरी मानता है और इन्हें कभी नहीं करता है।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत के रूप में वह मात्र अपनी विवाहिता स्त्री से ही भोग करता है शेष स्त्रियों में माता, बहिन और पुत्री के समान व्यवहार करता है। आज भारतीय समाज जिस बलात्कार जैसी घिनौनी समस्या से ग्रस्त है यदि समाज श्रावकोचित ब्रह्मचर्य अणुव्रत को अपना ले तो इस बीमारी से सदा के लिए मुक्त हो सकता है और एड्स जैसी घातक बीमारी से भी बच सकता है।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत के रूप में वह अपने परिग्रह को सीमित रखता है और शेष का दान करता है। इस तरह जैन श्रावक के यह पाँचों व्रत राष्ट्र कल्याण में किसी न किसी