Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 अवकाश ही नहीं लेने देती कि आत्म विकास के द्वारा सभ्यता के वास्तविक विकास का काम कर सके।''16 आत्म विकास के लिए ही जैन श्रावक को कहा जाता है कि न्यायापात्तधनो यजन्गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भज नन्योनुगुणं तदर्हगृहिणी-स्थानालयो हीमयः। युक्ताहारविहारआर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, श्रण्वन्धर्म विधिं, दयालुरघभी: सागारधर्मं चरेत्॥१० अर्थात् न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित-मित-प्रिय बोलने वाला, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित लज्जावान्, शास्त्रानुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला, दयावान् और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म का पालन कर सकता है। राष्ट्र के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या काले धन (अनीति का धन) और आतंकवाद की है। श्रावक इस दृष्टि से राष्ट्र का सबसे बड़ा हितैषी है क्योंकि वह न्याय से धन कमाता है और हिंसा से दूर रहता है। वह न किसी की हिंसा करता है, न हिंसा करने के भाव मन में या मुख पर लाता है। यह कहाँ की नीति है कि दूसरों को मारो या दूसरों को मारने के लिए स्वयं मर जाओ। मानव बम की अवधारणा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। ऐसे व्यक्ति के विवेक को क्या कहें जो दूसरों को मारने के लिए खुद मरता है। यह स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए उचित नहीं कही जा सकती। नागरिक अधिकार एवं राष्ट्र धर्म भी इसे उचित नहीं मानता। जैन श्रावक के लिए तो स्पष्ट विधान है कि जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्सवि य एत्तियगं जिणसासणं॥ अर्थात् जैसा तुम अपने प्रति चाहते हो और जैसा तुम अपने प्रति नहीं चाहते हो, दूसरों के प्रति भी तुम वैसा ही व्यवहार करो; जिन शासन का सार इतना ही है। आज यदि इस नीति पर समाज या देशवासी चल रहे होते तो आतंकवाद जैसी समस्या का जन्म ही नहीं होता। आतंकवाद के मूल में पद, धन और प्रतिष्ठा है जबकि श्रावक स्वपद चाहता है, सत्ता प्रतिष्ठान नहीं। श्रावक वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना रखता है। जबकि अन्य का सोच वैसा ही हो; यह जरूरी नहीं। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है कि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है। वसु यानी धन-द्रव्य धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ११८

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384