________________
अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
होवे चोरी न जारी, सुसमय बरते, हो न दुष्काल मारी।
सारे ही देश धारें, जिनवर वृष को, जो सदा सौख्यकारी॥१४ -हे जिनेन्द्रदेव ! आप पूजन करने वालों को, रक्षा करने वालों को, सामान्य मुनियों को, आचार्यों को, देश, राष्ट्र, नगर, प्रजा और राजा को सदा शान्ति प्रदान करें। सब प्रजा की कुशल हो, राजा बलवान और धर्मात्मा हो, मेघ (बादल) समय-समय पर वर्षा करें। सब रोगों का नाश हो, संसार में प्राणियों को एक क्षण भी दुर्भिक्ष, चोरी,अग्नि और बीमारी आदि के दुःख न हों और सब संसार सदा जिनवर धर्म को धारण करे, जो सदैव सुख देने वाला है।
कहते हैं कि अर्थ अनर्थ की जड़ होता है जबकि बिना अर्थ के न राष्ट्र समृद्ध होता है और न ही उसका कल्याण होता है। विश्व मंच पर अर्थहीन राष्ट्र अपना प्रभाव, अपनी उपस्थिति भी प्रभावी तरीके से व्यक्त नहीं कर पाते हैं। श्रावक जहाँ 'अर्थमनर्थ भावय नित्यं' की नीति पर चलता है वहीं अर्थपुरुषार्थ में प्रयत्नशील भी होता है। वह अर्थ को आवश्यक मानता है ताकि आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। फेडरिक बेन्थम ने 'अर्थशास्त्र में लिखा है कि
"But it is quite impossible to provide every body with a many consumet's goods, that is with as high standard of living as he would like, If all persons were like Jains-members of an Indian sect, who try to subdue and extinguish ther physical desires, it might be done. If consumer's goods descended frequently and in abounance from the heavens, it might be done.As things are it connot be done."15
अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को सभी सेव्य पदार्थों की प्राप्ति हो सके, अर्थात् उसकी इच्छानुसार उसका जीवन स्तर दिया जाए; यह संभव नहीं है। हाँ ! यदि सभी लोग जैन सदृश होते तो यह संभव था, कारण भारतीयों के जैन नामक वर्ग में अपनी भौतिक आकांक्षाओं को संयत करना तथा उनका निरोध करना पाया जाता है। दूसरा उपाय यह होगा कि यदि दिव्यलोक से बहुधा तथा विपुल मात्रा में भोग्य पदार्थ आते जावें तो काम बन जाए; किन्तु वस्तुस्थिति को दृष्टि में रखते हुए ऐसा नहीं किया जा सकता है।
जिनके हाथों में अर्थशास्त्र होता है वे धर्मशास्त्र नहीं समझते। लेकिन यह भी सच है कि बिना धर्मशास्त्रों के अर्थशास्त्रों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अर्थ का उपार्जन भी न्याय, नीति एवं धर्मसम्मत होना चाहिए वरना वह पाप की श्रेणी में आयेगा। ऐसा अर्थ राष्ट्र का भला नहीं कर सकता। आज अर्थ संपन्नता को ही संस्कृति संपन्नता मान लिया गया है जो उचित नहीं है।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने 'विश्वमित्र' के दीपावली अंक दि. 21/10/49,-16 में लिखा था कि-"आधुनिक सभ्यता आर्थिक बर्बरता की मंजिल पर है। वह तो अधिकांश रूप में संसार और अधिकार के पीछे दौड़ रही है और आत्मा तथा उसकी पूर्णता की ओर ध्यान देने की परवाह नहीं करती है। आज की व्यस्तता, वेगगति और नैतिक विकास इतना