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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 __ मंगलाचरण से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है और षटखण्डागम के सब सूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करने रूप क्रिया में प्रवृत्त हुए जीवों के प्रतिसमय असंख्यात गुणित श्रेणी से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है। फिर मंगलाचरण की क्या आवश्यकता है ? इस विषय में ध. पु. 8 पृष्ठ 3 पर पुष्पदंत आचार्य ने कहा है कि "सूत्र अध्ययन से तो सामान्य से कर्मों की निर्जरा की जाती है किंतु मंगलाचरण से सूत्र अध्ययन में बिघ्न करने वाले कर्मों का विनाश किया जाता है क्योंकि सूत्रार्थ के ज्ञान और अभ्यास में बिघ्न उत्पन्न करने वाले कर्मों का जब तक विनाश न होगा, तब तक उसका ज्ञान और अभ्यास दोनों असंभव हैं। धवला, ग्रंथ में मंगल के पर्यायवाची नाम दिए हैं वह हैं पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ, सौख्य यह सब मंगल शब्द जैसे समानार्थी उद्देश्यों की ही विधा है। मंगल का तात्पर्य जो जीव को सुख और पुण्य का दाता है कर्म मलों को घातना, गलाना, विनष्ट करना, हनन करना, दहना, शुद्ध करना, विध्वंस करना, रूप में कहा गया है अर्थात् जो पुण्य लाता है, सुख लाता है वह मंगल है।
जिनेन्द्र देव का गुणगान मुख्य मंगल है तथा पीली सरसों, कलश, वंदनवार, श्वेत वर्ण दर्पण आदि अमुख्य मंगल हैं। चौदह विद्याओं के पारगामी आचार्य पुष्पदंत भूतबली मंगल कर्ता हैं तथा भव्य जीव मंगल करने के योग्य हैं। रत्नत्रय की साधक सामग्री मंगल का उपाय है जैसे मन, वचन, काय की एकाग्रता से अर्हतादि को स्मरण कर नमस्कार करना आदि। पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में (1/5/9) मंगल के निम्न प्रकार भेद किए गये हैं
(1) सामान्य से मंगल एक प्रकार का है। (2) मुख्य और गौण की अपेक्षा दो प्रकार का है। (3) सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र (रत्नत्रय) की अपेक्षा मंगल तीन प्रकार का है। (4) अरिहंत मंगल, सिद्ध मंगल, साधु मंगल और धर्म (केवलीपण्णत्तो धम्मो) की अपेक्षा मंगल चार प्रकार है। (5) ज्ञान दर्शन मन गुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति (तीन गुप्ति) की अपेक्षा से 5 प्रकार का है। (6) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा 6 प्रकार का तथा (7) जिनेन्द्र देव को नमस्कार इस रूप से मंगल अनेक प्रकार का है।
"शास्त्र के लेखन के आदि में मंगल इसलिए किया जाता है कि शिष्य शीघ्र ही शास्त्र के पारगामी हों। मध्य में मंगल करने से शास्त्र के स्वाध्याय आदि की व्युच्छित्ति नहीं होती
और अंत में मंगल करने से विद्या व विद्या के फल की प्राप्ति होती है।" लेकिन लौकिक कार्यों के लिए मात्र आदि में ही मंगल करना चाहिए। (ध.पु. 9 पृष्ठ 4)
धवला ग्रंथ में णमोकार' रूप किये गए मंगल की निरंतर आराधना करने से जीव की सद्गति एवं परंपरा से मोक्ष गति की प्राप्ति होते देखी गई है। अत: मंगल मंत्र णमोकार मेरे आत्म कल्याण के मार्ग में मंगलाचरण के रूप में मेरा व सबका उपकार करे।
-- प्रधान संपादक 'वीतरागीवाणी', सेल सागर, टीकमगढ़ (म.प्र.)-472 002