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अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010
आचार्य विशुद्धसागर जी के संबोधन में संभावना की तलाश है। वे अणु में विराट बीज में वटवृक्ष की संभावना के विश्वासी हैं तभी तो सभी श्रोताओं को वे ज्ञानी, मुमुक्षु या मनीषी शब्द का संबोधन देते हैं।
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ज्ञान को आत्मसात करने वाला ज्ञानी तथा तत्त्व का भेदविज्ञानी-मुमुक्षु या मनीषी है। ये शब्द किसी विद्वत्ता या पाण्डित्य के भी सूचक नहीं सम्यक्त्वी अल्पाहारी भी ज्ञानी व मुमुक्षु हो सकता है और चारित्रशून्य विद्वान भी अज्ञानी है क्योंकि विज्ञान के पास तोता रटन्त ज्ञान है वह आत्मसाती नहीं है। संयम का अनुशीलनकर्ता ही सही मनीषी है। सच्चा सम्यक्त्वी - चारित्रमूलक धारणाओं का विश्वासी बन जाता है।
(२) पुरुषार्थ देशना की पृष्ठभूमि के दो तथ्य - बिन्दु
आचार्य विशुद्धसागर जी कहते हैं कि यदि लोक में जीना है, तो लोक-व्यवहार बनाकर चलो। यदि लोकोत्तर होना चाहते हो तो शुद्ध सम्यकदृष्टि बनकर लोक-व्यवहार से ऊपर उठकर आत्मा की निश्चय-दृष्टि अपनानी होगी। भावी तीर्थंकर आचार्य समन्तभद्र ऐसा ही लोकोत्तर जीव है जो लोक विनय के समय ध्यान में बैठ जाता है। जिनशासन देवी ज्वालामालिनी प्रकट होकर कहती है-'चिंता मा कुरु' अपनी दृढ़ श्रद्धा से च्युत न होना और तभी समन्तभद्र राजा से बोले- 'राजन् ! यह शिवपिण्डी मेरा नमस्कार सहन नहीं कर सकेगी और जैसे ही स्वयंभूस्तोत्र का वह पद वन्दे कहा कि पिण्डी फट जाती है। और उसमें से भगवान चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रगट हो जाती हैं। अंतरंग में इतनी विशुद्धता वाला आचार्य अनेकान्त व स्याद्वाद का कथन, अपने " अध्यात्म अमृत कलश" में करते हुए कहते हैं
उभयनय विरोधध्वंसिनी स्यात्पदांगे।
जिन वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ॥४॥
जो जीव व्यवहार व निश्चय दोनों नयों की परस्पर की विरुद्धता को मिटा देने वाले स्यात् या कंथचित् पद से चिन्हित जिन वचनों में रमण करते हैं वे स्वयं मोह का त्याग करते हुए पक्षपात रहित हो ज्योति स्वरूप शुद्धात्म स्वरूप को देखते हैं। यही स्यात् पद अपेक्षा वाचक है और विरोध का मंथन करने वाला है।
दूसरा तथ्य है जो आचार्य विशुद्धसागर जी वैज्ञानिक शैली से समझाने का प्रयास करते हैं। वह है आत्मा की बंध या निर्बंध दशा। आत्मा जब रागादि परिणमन करती है तो पुद्गल की कार्मण वर्गणाएँ- ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्मों में परिणत कर बंध दशा को प्राप्त होती है तथा कर्म के निमित्त को पाकर जीव रागादि भावों को प्राप्त होता है। इन दोनों द्रव्यों में यह क्रियावती शक्ति पाई जाती है।
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वस्तुतः चैतन्य विद्युत् तरंगें इस शरीर रूपी मशीन से काम करा रही हैं। चैतन्य बिजली चली गयी तो मशीन धरी की धरी रह गयी। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं विना व्यवहार के हम परमात्मा को नहीं समझ सकते। इसी प्रकार बिना पुद्गल के संयोग से हम आत्म द्रव्य को नहीं समझ सकते। मोबाइल की सिद्धि जैनागम से होती है। तीर्थंकर ने जन्म