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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
भोगोवभोग-सामग्गिणो अभावो तदो णो जदो लोहो। धणोवभोगो जत्थ होदि तत्थेव ण अविदु देवेसु पज्जाएसु
भोगोवभोग- कंखा इंदियाहिलासा शौच धर्म केवल पवित्र नहीं करता, अपितु वीतराग भाव को भी उत्पन्न करता है। भोगोपभोग सामग्रियों का अभाव तब तक नहीं जब तक लोभ है। लोक में धन का उपभोग जहाँ होता है देव पर्यायों में भी भोगोपभोग की आकांक्षा, इंद्रिय अभिलाषा आदि रहती है।
विसएसु रागो पसत्थो वा अपसत्थो वा रागो रागो त्ति। सो उवभोग-परिभोग-रागो
इंदिय-विसएण जायद। विषयों में राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त राग, राग ही है। वह उपभोग एवं परिभोग राग इंद्रिय विषय से ही उत्पन्न होता है।
मिगो कण्णपिय-सुद्धेणं (मृग कर्ण प्रिय शब्द से) हत्थी फासिंदिएणं
(हाथी स्पर्शन इंद्रिय से) पतंगा तेज रूवेणं
(पतंगा तेज रूप से/ अग्नि से) भमरो गंधेणं
(भ्रम गंध से ) मच्छो दु जिब्भरसेणं च (मत्स्य जिह्वारस के लोभ से) खीयदे जीवण-अंतं च पत्तेज्जा (जीवन के अंत को प्राप्त होते हैं।) लोह- कसायंतो सुचित्तणं (लोभ का अंत होना शुचिता है।)
पवित्रणं। एस आद-सुची। (पवित्रता है। यही है आत्मशुद्धि।) सुचिधम्महूस पत्ती
णाणेण झाण-सुदेहणं सज्झाय-तव-कम्मणा। महव्वद- समालं के समिदि- धम्म- धारणे॥ तव-संजम-सुद्धेणं
सुचि धम्मो सदा हवे। शौच धर्म की प्राप्ति
ज्ञान, ध्यान, शुद्ध भावना, स्वाध्याय एवं तपकर्म से शौच धर्म की प्राप्ति होती है। यह महाव्रतों से अलंकृत, समिति एवं धर्म के धारण पर भी तप और संयम की शुद्धता से शुचिधर्म होता है।