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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
सुकौशल चरित्र में कहा है-जो शुद्ध संयम पद पालता है, आत्मा को शील रूपी जल से प्रक्षालित करता है और जिससे आता हुआ भवमल रुक जाता है वह शौचधर्म है। आयार-सुद्धि-सच्चउ त्ति
सोचो सच्चउ सुचि त्ति धम्मो
आयारसुद्धिणो पमुह-कारण। आचार शुद्धि है शौच- शौचधर्म आचार शुद्धि का कारण है।
सम्मदंसणेया सह उक्किइ पावण-भावणा होदि। ममत्तादो विरदादो जो लहुत्त भावो होदि सो आद- सुद्धं भावं पडि णएदि। परमगुणि- वेरग्गी आद-विसुद्ध-साहगो। कंखा पुण्ण-पवाह
रोहेज्ज सुचिधम्मिणो॥ सम्यग्दर्शन के साथ उत्कृष्ट पावन भावना होती है। ममत्व से विरत होने से जो लघुता भाव होता है वह आत्मा के शुद्ध भाव की ओर ले जाता है। जो परम गुणी, वैरागी, आत्मविशुद्ध साधक आकांक्षाओं के पूर्ण प्रवाह को रोकता है, वही शुचिधर्मी होता है। सुचिधम्मो कदा ? - शुचि धर्म कब होता है?
सुचिधम्मस्स अभावो होदि अदितण्हाए अदिकखाए अहिलासाए, लालासा-इच्छा-मुच्छावासणा-कामणा-राग-दोस-मोह-आसत्ति-कारणादो जत्थ अस्थि लोहो तत्थ सव्वे हुति दस-गुणट्ठाणं पेरंतं लोहो। लोहंते सव्व- कसायंतो।
वेरग्ग-भावणा जादि अस्सिं अंते। शुचिधर्म कब होता है ?
अतितृष्णा, आकांक्षा, अभिलाषा, लालसा, इच्छा, मूर्छा, वासना, कामना, राग, द्वेष, मोह एवं आसक्ति के कारण से शुचिधर्म का अभाव होता है जहां लोभ होता है, वहां सभी होते हैं। लोभ की समाप्ति होने पर सभी कषायों का अंत हो जाता है। वैराग्य भावना भी इसके अंत होने पर होती है।
सुचिधम्मो णो केवलं पवित्तत्तणं उप्पज्जेदि वीदराग- भावं च