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सुचिधम्मो
कंखा-भाव- णिवित्तिं ॥ कंखा आकंखा लालसा - इच्छा अहिलासा-गिद्धित्ति लोहो।
तस्स कंखाभाव- णिवित्तिं भासदे सुविधम्मो
सुचिरस भावो कम्मो वा सोचमिदि ।
अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010
शौचधर्म
आकांक्षा के भाव से हटना शौचधर्म है। कांक्षा, आकांक्षा, लालसा, इच्छा, अभिलाषा, गृद्धि आदि लोभ के अभाव को शुचि धर्म कहते हैं।
दव्यादो णिल्लेवत्तणं परवत्थु कखभाव उवरमं परदव्य इच्छाभावं चं भासदे सुचिधम्मो
शुचिता / पवित्रता का भाव होना शौच है । द्रव्य से निर्लेपता, परवस्तु की आकांक्षा से उपरम या परद्रव्य की इच्छाभाव को नहीं करना शुचिधर्म है।
पुग्गलिक-पर-वत्थु - कंखाभावो लोए अस्थि सव्वाणि दव्वाणि
सव्वे पदत्था पुग्गला तं पडि
आकंख-विरहिदो जो होदि सो पवित्त-साहगो । पिल्लेवी उवरदो पर पदस्थ - इच्छाहिंतो ।
पौद्गलिक पर वस्तुओं का आकांक्षा न होना
लोक में सभी द्रव्य, सभी पदार्थ जो पुद्गल हैं, उनके प्रति जो आकांक्षा रहित होता है, वह पवित्रसाधक, निर्लेपी एवं पर पदार्थों की इच्छाओं से रहित है।
सम-संतोस जलेणं जो धोवदि तिब्व-मोह-मलपुंजं । भोयण गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा 397)
जो सम संतोष रूपी जल से तीव्र मोहमल समूह को धोता है जो भोजन की गृद्धता
से रहित होता है उसकी विमल शौच है।
सुकोसल चरिडं पभासिदो जो पय संजमु सुद्धउ पालइ सील-सलिल- अप्पउ पक्खालइ । आवंत भवमलु पुण रुज्झइ सो सच्चड पंचमगुण कुज्झइ ।
( कवि रइधु. सं. 3 / 15 )