________________
00
अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
तस्स विढदि धम्मो। सो दंसण-णाण-पहाण-आसमे ठिदो समासेज्ज चारित्तं सम्मचारित्तं। चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णि णिद्दिट्ठो। दसण-णाण-चारित्तं च समो
अप्पणो परिणामो सो। सहज, सरल एवं विशुद्ध परिणामी सोधी होता है। जो आत्मा सोधी होता है, उसके धर्म ठहरता है। वह दर्शन, ज्ञान प्रधान आश्रम में स्थित चारित्र/ सम्यक्चारित्र की ओर प्रवृत्त होता है। चारित्र धर्म है, जो यह धर्म है वही 'सम' कहा जाता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकरूपता का नाम सम/ समत्व है जो आत्मा का परिणाम है।
रोहेज्ज दुग्गदि विड्ढिं जम्म-मरणं पुण पुणेव वंक परिणामेण जायदे। जं कि जगे मणसा वंकं चिंतेदि वयसा वंकं जंपेदि काएण कुणेदि वंक। तेण कारणेण तिरिच्छ-गदिं पत्तेदि। तच्चत्थसुत्ते पण्णेक्षो-माया-तिरिच्छ-जोणिणो। माया- छल- कपडो च तत्तो आसवो बंधो वितिरिच्छ गदीए। जो माया-ममत्तादिं इज्जेदि सो पुणो पुण जम्म-मरणं पत्तेति
दुग्गदीए विड्ढिं च बेड्ढेदि। आर्जव धर्म दुर्गति और जन्म-मरण की वृद्धि को रोकता है। पुनः पुनः जन्म-मरण वक्र परिणाम से होता है। क्योंकि इस जगत् में जो मन से वक्र सोचता है, वचन से वक्र बोलता है और काया से वक्र करता है। उस कारण से तिर्यचगति को प्राप्त होता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा- माया तैर्ययोनस्य 16/17) माया छल-कपट है, उससे आश्रव और बंध होता है। तिर्यचगति का। जो माया-ममत्व का आचरण करता है, वह बार- बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है और दुर्गति की वृद्धि को बढ़ाता है। माया - वत्थु-सरूव-अण्णधा-मुणणं
आद-सहावं जध तध ण मुणणं ण जाणणं अण्हधा परिणमणं अण्हधा इच्छणं च अणंत कुडिलक्षणं। तम्हा कारणादु आद-सहावं वत्थं-सरूवं ण जाणेदि। आद- विपरीद-भावो वंकत्तं विरूवत्तं आदि कुव्वेदि, जो अणंताणुबंधी माया-कसाय-परिणामो।