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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
धर्मस्वरूप
-प्रो. उदयचन्द्र जैन सम्माणे असम्माणे समं खमेज्ज मिदुं मिदुज्जेज्ज। जणो जणं परिजणं स-जणं सहजते परिच्चागेदि किण्णु त्ति ण चत्तेदि पदिढं। माण च आधारो 'परं' ण 'परं' णिय-मुणणं। अणुव्वदीए पच्चक्खण-संजलण-मरणं, महव्वदोए संजलण-माणं ततो विणो ठाइ त्ति। सो खएज्ज मद्दव-सहावेणं च।
सम्मान और असम्मान में समता धारण करे एवं मृदुता को दर्शाए। व्यक्ति जन, परिजन एवं स्वजन को सहज रूप में छोड़ सकता है, किन्तु आत्म-प्रतिष्ठा को नहीं। मान का आधार 'पर' नहीं, अपितु 'पर' को अपना मानना है। अणुव्रती के प्रत्याख्यान, संज्वलन मान, महाव्रती के संज्वलन मान रहता है पर वह स्थायी नहीं, वह भी मार्दव गुण से छूट जाता
३. उत्तम-अज्जवो
उज्जुणक्षण- अज्जवं। उज्जगुक्षणं अकुडिलक्षणं अवक्कक्षणं अमाइत्तं माया-रहिदक्षणं
च अज्जवं। उत्तम आर्जव
ऋजुता होना/ सरल परिणाम होना आर्जव है। ऋजुता, अकुटिलता, अवक्रता, अममत्व, माया रहित्व आदि होना आर्जव है।
अज्जवो य अवक्कत्तं काय-वाग-मणावगं। जोगस्स रिजु-भावो त्ति माया-उदय-णिग्गहो॥ अज्जवो रिजुभावो त्ति