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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
ज्ञान व्याकुल तथा राग-द्वेष सहित होता है। इसलिए वास्तव में वह ज्ञान दु:ख रूप तथा निष्प्रयोजन के समान है क्योंकि परिणामी होने के कारण ज्ञान में व्याकुलता पाई जाती है। इसलिये ऐसे इन्द्रियजन्य ज्ञान में दु:खपना अच्छी तरह सिद्ध होता है, क्योंकि जाने हुए पदार्थ के सिवाय अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा रहती है। इन्द्रियज्ञान युगपत् न होने से दुःख का कारण
इन्द्रियज्ञान क्रमिक होता है, इसलिए वह दु:ख का कारण है। आचार्य जिनसेन लिखते हैं कि
"क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदो भवति'१११ अर्थात् इन्द्रियज्ञान क्रमपूर्वक होता है, इन्द्रियों के आश्रय से होता है तथा प्रकाशादि की सहायता से होता है, इसलिए दुःख का कारण है। पण्डित राजमल्ल लिखते हैं कि
"प्रमत्तं मोहयुक्तत्वान्निकृष्टं हेतुगौरवात्।
व्युच्छिन्नं क्रमवर्तित्वाकृच्छं चेहाद्युपक्रमात्॥११२ अर्थात् वह इन्द्रियजन्यज्ञान मोह से युक्त होने के कारण प्रमत्त, अपनी उत्पत्ति के बहुत कारणों की अपेक्षा रखने से निकृष्ट, क्रमपूर्वक पदार्थों को जानने के कारण व्युच्छिन्न और ईहा आदि पूर्वक होने से दु:ख रूप कहलाता है। दुःख दूर करने का एकमात्र उपाय आत्मस्वरूप की प्राप्ति
भेदविज्ञान के द्वारा जो पुरुष आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उसके सभी दु:ख नष्ट हो जाते हैं। इस विषय में आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं कि
“आत्मविभ्रमजं दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति।
नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः॥११३ अर्थात् शरीर आदि में आत्मबुद्धि रूप विभ्रम से उत्पन्न होने वाला दु:ख शरीर आदि से भिन्न रूप आत्मस्वरूप को जानने से शान्त हो जाता है। अतएव जो पुरुष भेदविज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप की प्राप्ति में प्रयत्न नहीं करते वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं करते। अर्थात् वास्तविक सुख को प्राप्त नहीं करते। इसी संदर्भ में आचार्य गुणभद्र लिखते हैं कि
“हानेः शोकस्ततो दुःखं लाभाद्रागस्ततः सुखम्।
तेन हानावशोकः सन् सुखी स्यात्सर्वदा सुधीः॥१४ अर्थात् इष्ट वस्तु की हानि से शोक और फिर उनसे दुःख होता है, तथा फिर उसके लाभ से राग तथा फिर उससे सुख होता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को इष्ट की हानि में शोक से रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए। समस्त इन्द्रिय विषयों से विरक्त होने का नाम सुख और उनमें आसक्त होने का नाम दुःख है। अतः हम सबको विषयों से विरक्त होने का उपाय करना चाहिए।