________________
अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
93 मान गर्व परिणाम है पुरुष होने पर मन का मान निर्दय एवं परमर्दन वाला होता है। जिसके परिणाम स्वरूप अपनी जाति, अपना कुल, बल, तप, ज्ञान, रूप, लाभ एवं ऐश्वर्य को महनीय मानता है।
जीवो जीवो क्षि एरिसो भुल्लेदि। मद्दव- गुणे ढिदो साहगो दुरहिणिवेसं मुंचेदि। सो विभावं परिमुंचिदूण णिरंतरं
आद-विसुद्ध-सहावं आराहेदि। जीव, जीव है वह हीन या दीन नहीं है, ऐसा भूल जाता है। मार्दव गुण में स्थित साध क दुरभिनिवेश को छोड़ देता है। वह विभाव को छोड़कर सदैव आत्मा के विशुद्ध-स्वभाव की आराधना करता है।
मदो जाएदि मदं कुणेदि, माण-कसाएण। अहं अत्थि सूरो, वीरो अणगारो वि एरिसं चिंतण अणुचिंतणं
अहंकार-कारणं अहिमाणं च जोदिगो। मद होता है, मद करता है मान कषाय से, मैं हूँ सूर, वीर अनगार भी ऐसा चिंतन/ विचार, अनुचिंतन/ भावना अहंकार का कारण अभिमान का द्योतक है। रावण भी नरकगामी हुआ।
करेमि करावेमि एरिसो अहंकार भावो। तस्स उम्मूलणं मद्वो क्षि। णाणीणं समागमो साहूण जदीण सुद-धारगाणं तवीणं चं अहं परिच्चागेण पक्षो, 'अहं' अभावो मद्दवो क्षिा दव्व-मद्दवेण मिदुत्तं भावणिमित्तेण
णम्मक्षं आदम्हि पसण्ण-भावो, आद-गुणाण परिणंदो। करता हूँ, कराता हूँ, यह भी अहंकार भाव है, उसका उन्मूलन करना मार्दव है। ज्ञानियों, साधुओं, यतियों, श्रुतधारकों या तपस्वियों का समागम 'अहं' के परित्याग से प्राप्त हुआ, 'अहं' अभाव मार्दव है। द्रव्य मार्दव से मृदुता, और भाव कारण से नम्रता आती है। आत्मा में प्रसन्नता एवं आत्म-गुणों का पूर्ण आनंद थी।
- पिऊ कुंज, अरविन्द नगर, उदयपुर (राज)
शेष अगले अंक में...