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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
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विषय 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' कहकर अत्यधिक स्पष्ट कहा है। न्याय शास्त्रों का (सर्वज्ञसिद्धि) प्रकरण तो आता ही यही समझाने के लिये है। फिर यह निरूपण 'जलज' जी ने ऐसा कैसे कर दिया कि सर्वज्ञता का अर्थ मात्र स्वयं को जानना है? साथ ही आपने अपनी बात की पुष्टि के लिए नियमसार की गाथा 159 भी उल्लिखित की है जिसमें लिखा है कि केवली भगवान व्यवहार से सबकुछ जानते-देखते हैं, निश्चय से आत्मा को जानते हैं। यहां व्यवहार से जानने का अर्थ यह थोड़े ही है कि जानते ही नहीं है । व्यवहार से जानने का अर्थ है अनासक्त भाव से जानते हैं, अर्थात् परद्रव्यों और उनकी पर्यायों का ज्ञान उनमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं करता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार का मंगलाचरण भी यही कहता है- 'सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते' अर्थात् जिनकी विद्या (केवलज्ञान) आलोक सहित तीनों लोकों के लिए दर्पण की तरह आचरण करती है यह तो उस ग्रंथ का उद्धरण है जिसे लेखक ने स्वयं अनूदित भी किया है। इतना ही नहीं, आपने आगे लिखा- 'वे दृष्टि संपन्न हो गए।..... आधुनिक युग में दृष्टि संपन्नता की कुछ ऐसी ही झलक हमें महात्मा गांधी में देखने को मिलती है।'लेखक ने महावीर भगवान की तुलना गांधी जी से करके गांधी जी को भले ही महान बना दिया हो, किन्तु भगवान महावीर की दृष्टि संपन्नता की कीमत कम कर दी। अहिंसा के स्थूल रूप के अलावा गांधी जी ने कुछ भी प्रयोग ऐसे नहीं किये जिससे उनके सम्यक् दृष्टि होने का अंदेशा भी होता हो। भगवान महावीर का सामाजिक राजनैतिक, अर्थशास्त्रीय और भी जो कुछ भी युगानुरूप अध्ययन हो वह जरूर होना चाहिए लेकिन इस बात का भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि ऐसा करते समय उनकी आध्यात्मिक गरिमा और मौलिक सिद्धांतों पर आंच न आये।
इसी प्रकार पृष्ठ 23 पर यह वाक्य "देश की रक्षा के लिए सम्यक् ज्ञान पूर्वक शत्रु का वध भी हिंसा नहीं है"- भगवान महावीर के चिंतन से अक्षरश: मेल नहीं खाता। गृहस्थ के जीवन में संकल्पी हिंसा का पूर्णत: त्याग होता है, शेष तीन हिंसाएं, जिसमें विरोधी हिंसा भी एक है वह उसके जीवन में मजबूरी वश होती है लेकिन वे हैं तो हिंसा का ही भेद। 'वध' चाहे जैसा भी हो वह 'अहिंसा' नहीं हो सकता। यद्यपि इस बात को लेखक ने आगे कुछ स्पष्ट किया है किन्तु इस वाक्य को भी बदलना चाहिए।
इसी पृष्ठ पर एक वाक्य और है जिस पर ध्यानाकृष्ट करना चाहता हूँ- 'प्राकृत नए युग की भाषा जरूर थी परन्तु संस्कृत, पालि जैसी पूर्ववर्ती भाषाओं से ही विकसित हुई थी।' इससे ज्ञात होता है कि लेखक संस्कृत तो ठीक पालि को भी पूर्ववर्ती मानते हैं जबकि भाषा वैज्ञानिकों के नए अनुसंधान संस्कृत और प्राकृत को समकालीन मानते हैं और मानते हैं कि पालि भी प्राकृत भाषा का ही एक भेद है। वर्तमान में प्राकृत भाषा विद् इस विषय पर कई निष्कर्ष दे चुके हैं। यहां भी लेखक का ही मौलिक चिंतन प्रतीत होता
है।
पुस्तक की इन बातों की ओर हमारे अग्रज डॉ. वीरसागर जी ने ध्यान दिलाया। तभी उपरोक्त बातें मैंने लेखक एवं पाठकों का ध्यान आकृष्ट करवाने के लिए लिखी हैं; हो