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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
स्थलपर स्वयं कहा है कि लोककवित्व और कवित्व में समस्त संसार सोमदेव का उच्छिष्टभोजी है अर्थात् उनके द्वारा वर्णित वस्तु का ही वर्णन करने वाला है।
यशस्तिलक की रचना गृहस्थ जीवन की यथार्थ पृष्ठभूमि पर हुई है। अनेक गद्य काव्यों तथा चम्पू काव्यों में यशस्तिलक चम्पू ही एक ऐसा काव्य ग्रंथ है जो अत्यन्त मार्मिक करुण कथा को आधार बनाकर लिखा गया है।
इस चम्पू काव्य में कवि ने तत्कालीन युग की परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है। मंत्रियों के भ्रष्टाचार, स्वेच्छाचारी शासन, देश की आर्थिक एवं सामाजिक दशा का यथार्थ चित्रण इस चम्पू की विशेषता है।
राजा यशोधर की सेना का वर्णन यशस्तिलक चम्पू का उत्कृष्टतम एवं संस्कृत साहित्य का अन्यंत उच्च कोटि का वर्णन है। सोमेदव को सर्वाधिक सफलता रूप चित्रण, घटना एवं वर्ण्य विषय के अनुकूल वातावरण के सृजन, सैन्य वर्णन तथामानव के गूढरहस्यों के उद्घाटन में मिली है।
यशस्तिलक चम्पू सोमदेव सूरि की प्रौढ़ रचना है। इसके द्वारा उनके गहन, अध्ययन, प्रगाढ़ पाण्डित्य, काव्य सृजन की कुशलता तथा अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन होता है। वर्ण्य विषय के अनुरूप प्रौढ़, अलंकृत एवं प्राञ्जल भाषा शैली सहित विविधता का निदर्शन इस चम्पू काव्य की निजी विशेषता है। इसमें गद्य-पद्य का प्रयोग समान रूप से हुआ है।
यशस्तिलक चम्पू में अनेक अप्रचलित और अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैसेधृष्णि-सूर्यरश्मि। बल्लिका-श्रृंखला। सामज-हाथी। दैर्घिकेय-कमल। बलाल-वायु। नन्दिनी-उज्जयिनी। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सूरि प्राचीन शब्दों का जीर्णोद्धार करना चाहते
हों।
यशस्तिलक निर्दोष, गुणसंपन्न तथा अलंकृत चम्पू काव्य है। इसका लक्ष्य निर्वेद का परिपाक है। अतः इसका मुख्य रस शान्त है। अन्य सभी रस अंग बनकर प्रयुक्त हुए हैं। धार्मिक तत्त्वों का प्रतिपादन प्रमुख होते हुए श्रृंगार रस केवर्णन में यह ग्रंथ अन्य किसी के पीछे नहीं है। अतिशयोक्ति का निदर्शन यत्र-तत्र होता है। मूर्त के लिए अमूर्त और अमूर्त के लिए मूर्त उपमानों का बहुलता से प्रयोग हुआ है। दुष्प्रवेश वन के लिए 'दुर्जन-हृदयमिव दुष्प्रवेशम्' लिखकर कवि ने चमत्कार ला दिया है। अनुप्रास की छटा तो सोमदेव की शैली की प्रमुख विशेषता है। लोकोक्तियें एवं प्रहेलिकाओं का प्रयोग भी उनकी शैली को विशिष्टता प्रदान करता है। कुछ उदाहरणलोकोक्तियाँ : प्रथम आश्वास - श्रेयांसि बहुविध्नानि।
भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः। सप्तम आश्वास - राजपरिगृहीतं तृणमपि कांचनीभवति। -७, क. ३२