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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
नवरस
प्रहेलिका :
त्रिमूलकं द्विधोत्थानं पंचशाखं चतुश्छदम्।
योऽगं वेत्ति नवच्छायं दशभूमि स च काव्यकृत्॥' - ३.२५९ इसका समाधानः त्रिमूलकं
शक्ति, निपुणता, अभ्यास। द्विधोत्थानं
शब्द, अर्थ। पंचशाखं
प्रचुरा, प्रौढ़ा, परुषा, ललिता, भद्रा (वृत्तियां) चतुश्छदं
पांचाली, लाटी, गौड़ी, वैदर्भी। नवच्छायं दशभूमिम् = औदार्य, समता, कान्ति आदि 10 गुण। जो इन सबको जानता है वही काव्य- रचनाकार हो सकता है।
यशस्तिलक चम्पू में वीर रस के ओजस्वी वर्णनों के साथ ही भयानक, अद्भुत और रौद्र रस के वर्णन भी हैं। हास्य रस का भी कई स्थानों पर विनियोग हुआ है। इस चम्पू काव्य के गंभीर अध्ययन से यह निष्कर्ष स्वाभाविक है कि यह धार्मिक सोद्देश्य रचना कवि की एक अत्यन्त प्रौढ़ एवं पाण्डित्यपूर्ण कृति है, जिसमें उसके अलंकृत एवं प्राञ्जल परिष्कृत भाषा का प्रयोग करके इसे साहित्यिक दृष्टि से भी एक उच्च कोटि की महत्त्वपूर्ण रचना बना दिया है। २. जीवन्धर चम्पू
जैन महाकवि हरिचन्द्र का 'जीवन्धर चम्पू' 11 लम्भक का एक विशाल ग्रंथ है। डॉ. कीथ ने इस हरिचन्द्र को ही 'धर्माशर्माभ्युदय' महाकाव्य का प्रणेता भी माना है, जिसमें पन्द्रहवें तीर्थकर भगवान् धर्मनाथ का चरित वर्णित है। जीवन्धर चम्पू की रचना राजा सत्यंध र और विजया के पुत्र जैन राजकुमार जीवन्धर के चरित को लेकर ही की गयी है। यह कथा सुधर्मा स्वामी द्वारा सम्राट् श्रेणिक को सुनायी गयी। हरिचन्द्र का समय ईस्वी 900 से 1100 ई. के मध्य माना गया है।
जीवन्धर चम्पू की कथा वादीभसिंह की 'गद्य चिन्तामणि' अथवा 'क्षत्र चूडामणि' से ली गई है। यद्यपि जीवन्धर स्वामी कथा का मूल स्रोत आचार्य गुणभद्र के 'उत्तर पुराण' में मिलता है, तथापि चम्पू में मूल कथा से लंभ तथा कथानक संबन्धी भिन्नता है। इसमें प्रत्येक लम्भ की कथावस्तु तथा पात्रों के नाम आदि गद्य चिन्तामणि से मिलते-जुलते हैं। महाकवि के इस काव्य में भगवान् महावीर स्वामी के समकालीन क्षत्र-चूडामणि श्री जीवन्धर स्वामी की कथा गुम्फित की है। इस काव्य में राजा सत्यन्धर और विजया के पुत्र जीवन्धर का जीवन वृत्त निबद्ध है। इसमें निम्नलिखित 11 लम्भ हैं :1. सरस्वती लम्भ, 2. गोविन्दा लम्भ, 3. गन्धर्वदत्ता लम्भ, 4. गुणमाला लम्भ 5. पद्मा लम्भ, 6. क्षेमश्री लम्भ, 7. कनकमाला लम्भ, 8. विमला लम्भ, 9. सुरमंजरी लम्भ, 10. लक्ष्मणा लम्भ, 11. मुक्ति लम्भ,
रस, गुण और अलंकर संयोजन की दृष्टि से भी यह काव्य अपने ढंग का रमणीय