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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
14. विष्णु पुराण/ अंश 2, अध्याय 1/11-16 15. स्कन्द पुराण/ माहेश्वर खण्ड, कौमारखण्ड अ. 37.57 16. पुरुदेव चम्पू, स्तवक-1
-निदेशक संस्कृत, प्राकृत तथा जैन विद्या अनुसंधान केन्द्र
२८, सरस्वती नगर, दमोह
(म.प्र.)
वीतराग की पूजा क्यों ?
न पूजार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दयानाथ नितान्त वैरे।
तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पूनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥ अर्थात् है भगवान् पूजा वन्दना से आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप वीतरागी हैं-राग का अंश भी आपके आत्मा में विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसी की पूजा वन्दना से आप प्रसन्न होते हैं। इसी तरह निन्दा से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है। कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियां दे, परन्तु उस पर आपको जरा भै क्षोभ नहीं आ सकता, क्योंकि आपकी आत्मा से वैरभाव द्वेषांश बिलकुल निकल गया है। वह उसमें विद्यमान भी नहीं है। जिससे क्षोभ तथा प्रसन्नता आदि कार्यो का उद्भव हो सकता। ऐसी हालत में निन्दा और स्तुति दोनों ही आपके लिए समान हैं। उनमें आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है। यह सब ठीक है। परन्तु फिर भी हम जो आपकी पूजा वन्दनादि करते है। उसका दूसरा ही कारण है, वह पूजा वन्दनादि आपके लिए नहीं- आपको प्रसन्न करके आपकी कृपा संपादन करना, या उसके द्वारा आपको कोई लाभ पहुंचाना, यह सब उसका ध्येय नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्यगुणों का स्मरण भावपूर्वक अनुचिन्तनजो हमारे चित्त को-चिद्रूप आत्मा को- पापमलों से छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाता है, और इस तरह हम उसके द्वारा अपने आत्मा के विकास की साधना करते हैं। इसी से पद्य के उत्तरार्ध में यह सैद्वान्तिक घोषणा की गई है कि आपके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे पापमल से मलिन आत्मा को निर्मल करता है- उसके विकास में सचमुच सहायक होता है।
- आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार अनेकान्त, वर्ष 26, किरण 6 से साभार