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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 गद्य काव्य की भांति अनुप्रासमयी समस्त-पदावली-संपृक्त-भाषा में नगरी वर्णन से इसका आरंभ हुआ है
अथ विशालवाजिमाला विक्षिप्तविविध- मौक्तिापुञ्जातमरालिका भ्रम समागत-दृढालिंगन-तरंगित....रजताचलस्योत्तर-श्रेण्यामलकाभिधाना पुरी वरीवति६
इस चम्पू काव्य की कथा के उपसंहार में अहिंसा के प्रभाव का वर्णन किया गया है और श्रोताओं की, सर्वजीवदया की ओर उन्मुखता प्रदर्शित की गयी है
- वृषभसेनमुखा गणिनस्तथा सकलजन्तुषु सख्यमुपागातः।
विमलशीलसुशोभित-मानसाः परमनिर्वृतिमापुरिमे क्रमात्॥ महाकवि अर्हदास की नयी-नयी परिकल्पनाओं तथा रूपक, विरोधाभास, श्लेष, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, असंगति, उपमा, परिसंख्या, व्यतिरेक, अनन्वय, श्लिष्टोपमा आदि अलंकारों के पुट ने इस चम्पू के गौरव में चार चाँद लगा दिये हैं। इस चम्पू के कितने ही श्लेष तो इतने कौतुकावह हैं कि इनका अन्यत्र मिलना असंभव-सा है। उदाहरणार्थअलका नगरी के वर्णन में श्लेष का चमत्कार देखिए
या खलु धनश्री- संपन्ना निभुतसामोदसुमनोऽभिरामा, सकलसुदृग्भिः शिरसा श्लाध्यमानमहिमा, विविध-विचित्र विशोभितमालाढ्या, अलकाभिधानमर्हति।
सुमेरू के वर्णन में रूपक और श्लिष्टोपमा का चमत्कार कितना सुखद है, उदाहरणार्थ
त्रिदशोपसेवितोः यः प्राज्यविराजितरूचिर्महामेरुः।
लक्ष्मीविलासगेहे जम्बूद्वीपे विभाति दीप इव॥ अहमिन्द्र के वर्णन में विरोधाभास और व्यतिरेक सम्मिश्रण तथा अयोध्यानगरी के वर्णन में अनन्वय, श्लेष, विरोध और व्यतिरेक को किस खूबी के साथ बैठाया है यह देख कवि की प्रतिभा पर आश्चर्य होता है।
'पुरुदेव चम्पू' में प्रायः सभी प्रचलित एवं अप्रचलित छंदों का प्रयोग हुआ है। रस के अनुरूप छन्दों का प्रयोग काव्य की शोभा बढ़ा देता है' अतः कवि ने रस के अनुरूप ही अनुष्टुप्, आर्या, इन्द्रवज्रा, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, द्रुतविम्बित, पुष्पिताग्रा, पृथ्वी, भुजड्. गप्रयात,, मञ्जुभाषिणी, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, रथोद्धता, वंशस्थ, वसन्ततिलका, वियोगिनी, मालभारिणी, शार्दूलविक्रीडित, शालिनी, शिखरिणी, स्रग्धरा, स्वागता, हरिणी आदि सभी छन्दों का प्रयोग किया है।
पुरुदेव चम्पू का प्रत्येक भाग सरस और चुटीला है। ज्यों-ज्यों ग्रंथ आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसकी भाषा और भाव में प्रौढ़ता आती जाती है। इस ग्रंथ की ललित अलंकृत भाषा सहज ही पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।
भगवान् आदिनाथ और सम्राट भरत इतने अधिक प्रभावशाली पुण्य-पुरुष हुए हैं कि उनका जैन ग्रंथों में तो उल्लेख आया ही है उसके अतिरिक्त वेद के मंत्रों तथा उपनिषदों और जैनेतर पुराणों आदि में भी उल्लेख मिलता है। श्रीमद् भागवत पुराण में भी मरुदेवी,