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दुःख का विवेचन : जैनाचार्यों की दृष्टि में
- डॉ. कुलदीप कुमार
इस संसार में दुःख से सभी प्राणी डरते हैं। शारीरिक, मानसिक आदि के भेद से दु:ख कई प्रकार का है। लोक में शारीरिक दुःख को ही सबसे बड़ा दुःख माना जाता है, लेकिन वास्तव में देखा जाए तो शारीरिक दुःख सबसे हलकी श्रेणी का दु:ख है। शारीरिक दुःख से बड़ा दुःख मानसिक और मानसिक से भी बड़ा स्वाभाविक दु:ख होता है, जो व्याकुलता रूप है। उसका समीचीन ज्ञान न होने के कारण ही जीव नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवादियोनियों में चतुर्गगतिरूप भ्रमण करते हुए विविध दुःखों को भोगता रहता है। तथा जो जीव उक्त स्वाभाविक दु:ख को जानकर उसका निवारण कर लेता है, वह दु:खों से मुक्त हो जाता है। अतः सर्वप्रथम हम यह जानने का प्रयन्त करेंगे कि दुःख है क्या ? दुःख शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ
दु:ख शब्द मूलत: संस्कृतभाषा का दुःखं शब्द हैं। यह शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। '(दुष्टानि खानि यस्मिन् दुष्टं खनति- खन् ड, दुख अच्) जिसके अर्थ हैंपीड़ाकार, अरुचिकर, कठिन, बेचैन, खेद, रञ्ज, विषाद, वेदना और कष्ट इत्यादि।' दुःख का लक्षण ___ दु:ख का लक्षण बतलाते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं कि 'सदसेद्वद्योदयेऽन्तरड्. गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रीतिपरितापरूपः परिणामः सुखदुः खमित्याख्यायते।'२ ___ अर्थात् साता वेदनीय और असाता वेदनीय के उदयरूप अन्तरंग हेतु के रहते हुए बाह्यद्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे सुख दुःख कहे जाते हैं। अथवा पीड़ा रूप आत्मा का परिणाम दु:ख है।
वीरसेनाचार्य लिखते हैं-'अणिट्ठत्थसमागमो इगोत्थवियो च दुक्खं णाम। अर्थात् अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोग का नाम दुःख है। दुःख के भेद__दु:ख के भेदों को बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि- 'आगंतुकं मानसियं सहजं सारीरियं चत्तारि दुक्खाइं।' अर्थात् दुःख चार प्रकार का होता है- आगन्तुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा शारीरिक। अचानक बिजली आदि गिरने से अथवा अचानक कोई दुर्घटना आदि से जो दु:ख प्राप्त होता है उसे आगन्तुक दुःख कहते है। प्रिय जनों के दुर्व्यवहार आदि से तथा इष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने के कारण जो दु:ख प्राप्त होता है उसे मानसिक दु:ख कहते हैं। जीव के निज स्वभाव से उत्पन्न होने वाले दुःख को स्वाभाविक