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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
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है, परचतुष्टय से असद्प भी है। आगे कहते हैं कि-कथन तो क्रमशः किया जाता है। जब सत् का कथन होगा, तब असत् कथन गौण होगा, जब असत् कथन होगा, तब सत् कथन गौण होगा, परन्तु प्रति समय सद्भाव दोनों का ही रहेगा।
जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त अपने आप में अनूठा है, वह वस्तुगत प्रत्येक ध म को स्वीकारता है, लेकिन शर्त यह है कि वह कथन सापेक्ष हो, निरपेक्ष नहीं। क्योंकि आचार्य समन्तभद्र ने अपनी आप्तमीमांसा में स्पष्ट लिखा है कि- निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्॥ अर्थात् निरपेक्ष कथन मिथ्या है, जबकि सापेक्ष कथन सम्यक् होता है। __ वस्तु के स्वरूप को समझने के लिये पूर्वाग्रह से मुक्त होकर चिंतन करना चाहिये। पहले से ही मन में किसी एक पक्ष को लेकर चलना और फिर स्वाभीष्ट तत्त्व की सिद्धि के लिये छल-बल का प्रयोग करना उचित नहीं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज कहते हैं कि- ज्ञानियो! जिज्ञासु के लिये तत्त्व शीघ्र समझ में
आ जाता है, हठधर्मी के लिये कभी भी सम्यक् तत्त्वबोध नहीं होगा। कारण समझना, जिसके अन्तःकरण में वक्रता रहती है, वह स्वमत की सिद्धि चाहता है, स्वमत ही सिद्धि के लिये छलादि का प्रयोग करता है और कषायभाव को प्राप्त होता है, जहाँ क्षयोपशम का प्रयोग तत्त्वबोध में होना चाहिये था, वहां न होकर अपनी शक्ति का प्रयोग अतत्त्व की पुष्टि में एवं अहंकार की सिद्धि में लगा देता है। अहो! बड़े-बड़े साधु पुरुष भी इस अहं के मद में उन्मत्त हो जाते हैं और यथार्थ में स्वभूल को जानते हुए भी जनसामान्य के मध्य स्वीकार नहीं कर सकते।
....वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन जैसे का तैसा करना सम्यग्दृष्टि जीव का व्यसन होता है। विधि मुख एकान्त से या निषेध मुख एकान्त से द्रव्य का प्रतिपादन कभी एक रूप से ही पूरी तरह नहीं हो सकता। न सर्वथा सद्प ही है और न सर्वथा असद् रूप ही, यानी न सर्वथा विधि रूप, न सर्वथा निषेध रूप; आत्मादि द्रव्य तो विधिनिषेधात्मक है।'
यह तो हुई द्रव्य-सामान्य की चर्चा। अब यहाँ पर आत्मा के संदर्भ में विशेष विचार किया जाता है। इस संदर्भ में पूज्य आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने अपने परिशीलन में लिखा है कि- आत्मा सत् ही है, यदि ऐसा मानते हैं तो वह सर्वात्मक एवं मर्यादा विहीन हो जायेगा। सभी द्रव्यों के सत्पने के प्रसंग में आत्मद्रव्य सभी में घटित होने लगेगा। संकर नाम का दोष खड़ा हो जायेगा, साथ ही छह द्रव्यों की सत्ता समाप्त हो जायेगी। लोक में मात्र एकद्रव्य का प्रसंग रह जायेगा, जड़धर्मी चैतन्य हो जायेगा, अत्यन्ताभाव का अभाव हो जायेगा तथा अनवस्था दोष का प्रसंग आ जायेगा।
आचार्यश्री के इस कथन से मुझे प्रथम-द्वितीय शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा का वह प्रसंग याद आता है, जिसमें उन्होंने भावैकान्त स्वीकार करने पर दोषों की उद्भावना करते हुये लिखा है कि