________________
56
अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
गया है। सत्य शब्द सत् से निष्पन्न होने के कारण मूलतः सत्ता वाला या वास्तविक अर्थ का वाचक है। ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर सत्य का इसी रूप में प्रयोग हुआ है। यथास किलासि सत्यः।
(वह तू वास्तविक है।) मरुतां महिमा सत्यो अस्ति। (मरुत् देवों की महिमा वास्तविक है।) तयोर्यत्सत्यम्।
(उन दोनों में जो सच्चा है।) त्वं सत्य इन्द्रः।
( हे इन्द्र तुम सच्चे हो।) शताधिक स्थानों पर वेदों में सत्य शब्द का प्रयोग सत्य की महत्ता का कथन करने में समर्थ है।
वेदों में ऋत शब्द का प्रयोग सत्य के लिए तथा अनृत शब्द का प्रयोग असत्य के लिए किया गया है, जो जैनाचार में भी है। वैदिक परंपरा के आचार्य शाकटायन के विचार में सत्य वह है जो वर्तमान पदार्थ का तात्त्विक बोध कराये। यास्क के अनुसार 'सत्सु तायते सत्प्रभवं भवतीति वा25 अर्थात् जो सज्जनों में विस्तार को प्राप्त होता है, जो सज्जनों में प्रकट होता है वह सत्य है। विदुर के अनुसार छल रहित वचन सत्य है___तो कुल्लक भट्ट कहते हैं कि जैसा देखा सुना हो वैसा यथार्थ कहना सत्य है- 'यथा दृष्टं श्रुतं तत्त्वं ब्रूयात्। वेदों में सत्य की बहुशः प्रशंसा की गई है। अथर्ववेद में सत्य पर बल देते हुए कहा गया है कि प्राण सत्यवादी को उत्तम लोक में स्थापित करते हैं किन्तु असत्यवादी को वरुण के पाश बांध लेते हैं।
जैनाचार में सत्य का सामान्य कथन करते हुए कहा गया है-' सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते” अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है। एक श्रावक या सद्गृहस्थ के सत्य का विवेचन करते हुए आचार्य समन्भद्र स्वामी कहते हैं
स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे।
यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम्॥३१ श्रावक स्थूल झूठ न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवावे तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो ऐसा वचन यथार्थ भी कहे। सत्पुरुष इसे गृहस्थ का सत्य कहते हैं। इसमें 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयाद्एषधर्मो सनातनः।। की भावना यथावत् प्रकटीकृत है।
आचार्य शुभचन्द्र ने सत्य का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि सत्य व्रत श्रुत एवं नियमों का स्थान है, विद्या और विनय का भूषण है तथा सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र उत्पन्न करने का कारण है ऋग्वेद में 'सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वत: कहकर सत्य को विश्व का रक्षक प्रतिपादित करते हुए उसकी महत्ता का गान किया गया है।
3. अस्तेय या अचौर्य- ऋग्वेद में चोरी के प्रति घृणा का भाव व्यक्त करते हुए चोर को दण्डित करने का अनेकत्र उल्लेख है। कतिपय स्थल द्रष्टव्य हैं
उत स्तैन वस्त्रमथिं न तायुमनु कोशान्ति क्षितयो भरेषु।३४ (वस्त्रहरण करने वाले शरीर को देखकर लोग चीत्कार करते हैं) स्तेनं वद्धमिवादिते।३५ (वह चोर को