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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
पं. आशाधर जी ने सागारधर्मामृत में स्पष्ट रूप से कहा है कि अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शन आदि में जो प्रयत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं।' आचार का महत्त्व
वैदिक परपरा में आचार महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए स्पष्ट घोषणा की गई है कि आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते हैं
'आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।७ जो आचार नहीं समझता है, वैदिक ऋचा उसका क्या कल्याण कर सकती है
“यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति। आचार ही परम धर्म है- 'आचारः परमो धर्म:।' आचार के प्रमुख तत्त्व ।
आचारवान् व्यक्ति के लिए वैदिक परंपरा में सद्गृहस्थ एवं जैन परंपरा में श्रावक या उपासक शब्द का प्रायः प्रयोग किया गया है। आचार के प्रमुख तत्त्वों में दोनों ही परंपराओं में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह (सर्वसुख कामना) जैसे व्रतों को प्रतिष्ठा मिली है, भले ही दोनों परंपराओं में व्यावहारिक रुप से पर्याप्त भेद दृष्टिगोचर होता है एवं शास्त्रीय विवेचना में भी अन्तर है। व्यसनों के त्याग एवं दान को भी एक सद्गृहस्थ के लिए दोनों परंपरायें आवश्यक मानती हैं।
(क) पञ्चव्रतपालन- प्रवृत्ति एवं निवृत्तिरूप व्रत पांच है- अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह।
(1) अहिंसा- किसी प्राणी को मन, वचन, काय, कर्म से पीड़ा न देना अहिंसा है। जो व्यक्ति इसको आचारण में लाता है, वह अहिंसक कहलाता है। वेदों में अहिंसा के अनेक उल्लेख मिलते हैं। कतिपय उल्लेख द्रष्टव्य हैं
यन्नूनमश्यां गतिं मित्रस्य पापां पथा।
अस्य प्रियस्य शर्मण्यहिंसानस्य सश्चिरे॥१० अहिंसक प्रिय मित्र की शरण में रहकर श्रेष्ठ जीवन पाते हैं। मैं भी अहिंसक मित्र के मार्ग पर चलूँ। जीवन में कभी भी हिंसक व्यक्ति के मार्ग पर न चलूँ।
यो नः कश्चिद् रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्यः।
स्वैः प्व एवै रिरिषीष्टयुर्जनः॥११ जो राक्षसी आदत के कारण हिंसा करना चाहता है, वह अपने कर्मों से स्वयं ही मारा जाता है।
मा हिंसीस्तन्वाः प्रजाः। मा हिंसी: पुरुषम्। इदं मा हिंसी: द्विपादं पशुम्। अश्वं मा हिंसीः। अविं मा हिंसी। घृतं दुहानामदितिं जनाय मा हिंसीः।१२
अपने शरीर से प्रजा को मत मारो। मनुष्य की हिंसा मत करो। दुपाये मनुष्य और पशु को मत मारो। घोड़े को मत मारो। भेड़ ऊन देती है, उसे मत मारो। लोगे के लिए गाय दूध