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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 का भी मिश्रण रहता है। अतएव जैनाचार में मधु को मांस, मदिरा के ही समान त्याज्य माना गया है। इसकी त्याज्यता का सभी श्रावकाचारों में कथन पाया जाता है। योगसार में कहा गया है
बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भारास्पदम्।
असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्जयत्॥२ अर्थात्संयम की रक्षा करने वालों को बहुजीव घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति स्थान रूप मधु (शहद) का मन, वचन, काय से त्याग कर देना चाहिए। इसके त्याग को जैन श्रावक का एक मूलगुण माना है, जबकि वैदिक साहित्य में प्रायः मधु को सेव्य माना गया है। (छ) पंच उदुम्बरफल त्याग
जो वृक्षकाष्ठ को भेदकर फलते हैं, उन्हें उदुम्बर फल कहा गया है। ये पांच हैं- बड़, पीपल, ऊमर (गूलर), कठूमर (अंजीर) और प्लक्ष (पाकर)। इनका क्षीरफल के नाम से वैदिक परंपरा में उल्लेख पाया जाता है, किन्तु वहां पाकर (प्लक्ष) के स्थान पर महुआ (मधूक) का कथन किया गया है। जैनाचार में इन फलों को त्याज्य माना है। 5 अधिकांश आचार्य एवं विद्वान् पञ्चाणुव्रत के स्थान पर अष्ट मूलगुणों में इनका समावेश करते हैं।' आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है
'योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि।
त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा अर्थात् ऊमर, कठूमर, पाकर (पिलखन), बड़ एवं पीपल के फल त्रस जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान हैं। इस कारण इनके भक्षण में त्रस जीवों की हिंसा होती है। निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वैदिक आचार और जैन आचार में गृहस्थ के लिए कहे गये कतिपय सामान्य नियमों में स्थूल रूप से समानता है। हाँ, अनेक विषयों में असमानता भी है किन्तु यदि समानता के पक्ष को उजागर किया जाये तो सामाजिक सौमनस्य बनेगा तथा इससे धर्मात्माओं के लिए धर्मपालन में अनुकूलता का ही अनुभव होगा। संदर्भ
1. चर गत्यर्थः भक्षणे च। - पाणिनीय धातुपाठ, भ्वादिगण पृ.12 2. ऋग्वेद 103134.7 3. वही 5.51.15
मनुस्मृति, 2/18 5. द्रष्टव्य- जैन धर्म और दर्शन पृ. 249 6. सागारधर्मामृत, 7/35 7. विदुरनीति 3/42 की टीका 8. ऋग्वेद, 1.164.39