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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
बांधकर दण्ड प्रदान करता है।)
यजुर्वेद में तो स्पष्ट रूप से चोर को हिंसक घोषित करते हुए अग्निदेव से उन्हें नष्ट करने की प्रार्थना की गई है।
विविध स्मृतियों में चोरों को की गई दण्ड व्यवस्था से सहज ही वैदिकाचार में चोरी को पाप एवं अस्तेय या अचौर्य को व्रत मानने की परंपरा का संकेत मिलता है।
जैनाचार में अदत्त वस्तु को ग्रहण करना चोरी कहा गया है- 'अदत्तादानं स्तेयम्।'37 इसमें प्रमाद का योग रहता है। चोरी करने के उपाय बतलाना, चोरी का माल खरीदना, राज्य के नियमों के विरुद्ध कर आदि बचाना, माप-तौल को कमती-बढती रखना और अधि क मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु को मिलाना को अचौर्य के दोष कहक' - जैनाचार में भारतीय दण्ड संहिता भी प्रायः सभी धाराओं का समावेश स्वत: ही हो गया
भगवती आराधना में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि सुअर का घात करने वाला, मृग आदि को पकड़ने वाला और परस्त्री गमन करने वाला, इनसे भी चोर अधिक पापी है। अचौर्य व्रत से संयम की वृद्धि होती है।
४. ब्रह्मचर्य- एक गृहस्थ की पूर्णता वैवाहिक जीवन से होती है। ऋग्वेद के सूर्यासूक्त में वर कन्या का कर ग्रहण करते हुए कहता है कि मैं सौभाग्य के लिए तेरा हाथ ग्रहण करता हूँ। तू मेरे साथ वृद्धावस्था को प्राप्त करे। तू गार्हपत्य कर्म अर्थात् धर्मसाधना के लिए प्रदान की गई है। विवाह संपन्न हो जाने पर सभी उपस्थित जन वर वधू को आशीर्वाद
देते हैं
इहैव स्तं मा वियौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्।
क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे॥१ तुम दोनों यहीं रहो, कभी वियुक्त न हो, पुत्रों एवं प्रपौत्रों के साथ क्रीड़ा करते हुए अपने घर में प्रसन्न रहते हुए पूर्ण आयु को प्राप्त करो। अथर्ववेद में पत्नी की यह हार्दिक इच्छा प्रकट की गई है कि तुम केवल मेरे हो अन्य स्त्रियों की चर्चा भी मत करो।' इस विवेचन से स्पष्ट है कि स्वपत्नी संतोष या स्वपतिसंतोष को गृहस्थ का ब्रह्मचर्य व्रत माना गया है। जैनाचार में भी ब्रह्मचर्याणुव्रत में यही भावना विशदता से अभिव्यक्त होती है।
जैनाचार में अध्यात्ममार्ग में ब्रह्मचर्य को सबसे प्रधान माना गया है। निश्चय से तो ब्रह्म या आत्मा में रमणता ही ब्रह्मचर्य है, किन्तु व्यवहार में परस्त्रियों के प्रति राग रूप परिणामों का त्याग करना ब्रह्मचर्य है।43 गृहस्थ के ब्रह्मचर्याणुव्रत का कथन करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी का कथन है कि जो पाप के भय से न तो स्वयं परस्त्री के प्रति गमन करे न दूसरों को गमन करावे वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है।" स्याद्वादमंजरी में वैदिक परंपरा का एक श्लोक उद्धृत करते हुए कहा गया है
एकरात्रौषितस्यापि या गतिब्रह्मचारिणः। न सा क्रतुसहस्रेण प्राप्तु शक्या युधिष्ठिर!॥५