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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
हिंसा संकल्पी हिंसा है। उद्योगी, आरंभी और विरोधी हिंसा जब अपनी सीमा का उल्लंघन करे तब ये संकल्पी हिंसा में परिवर्तित हो जाती है। सागारधर्मामृत के अनुसार बुद्धिमान मनुष्य को खेती (कृषि) आदि कार्यों में संकल्पी हिंसा को सदैव के लिये त्यागना चाहिए, क्योंकि असंकल्प पूर्वक बहुत से जीवों का घात करने वाले किसान की अपेक्षा जीवों को संकल्पपूर्वक मारने वाला धीवर अपेक्षाकृत अधिक पापी होता है। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार हिंसा का फल पंगुपना, कुष्टिपना, कानापना आदि देखकर बुद्धिमान को निरपराध जीव जंतुओं की संकल्पी हिंसा छोड़ना चाहिए।।।
जैन शास्त्रों में हिसा के दो भेद और मिलते हैं-1.द्रव्य हिंसा, 2. भाव हिंसा १. भाव हिंसा
दूसरों के अथवा स्वयं के प्राणघात का जो विचार आता है, उसे भाव हिंसा कहते हैं। भाव हिंसा से आत्मीयता एवं मानसिक शांति भंग हो जाती है और आन्तरिक शुचिता मलिन होती है। जानबूझकर किसी की मानसिक शांति भंग करना भाव हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, शोक, काम, क्रोध आदि भाव भावहिंसा की पर्यायें हैं। २. द्रव्य हिंसा
शस्त्र, जहर, फंदा एवं आग आदि किसी भी प्राणघातक निमित्त से स्व और पर के प्राणों का व्यपरोपण (हरण) करना द्रव्य हिंसा है।
गृहस्थाश्रम में हिंसा से बचने के उपायगृहस्थाश्रम मानव जीवन की एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्रत्येक कार्य लगभग हिंसा पूर्ण होता है। लेकिन अगर उद्योग, व्यापार आत्मरक्षा और मातृभूमि की सुरक्षा करते हुए भी ह्वदय में शुचिता है, उद्देश्य में पवित्रता है तो कठोर लगने वाला व्यवहार अथवा प्रत्यक्ष में दिखाई पड़ने वाली हिंसा भी गृहस्थ की अहिंसा कहलायेगी। चीन से युद्ध के समय शांति सेना को उद्बोधन देते हुए विनोबा जी ने कहा था कि “आक्रामक के सामने अहिंसा वीरता नहीं कायरता है।" गृहस्थावस्था में गृहकार्यों को करते हुए हिंसा से कैसे बचा जाय इस पर जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर सटीक वर्णन मिलता है। सागारधर्मामृतकार के अनुसार श्रावक को धन कमाने और बढ़ाने के उपाय ऐसे करना चाहिए जो छल-कपट से मुक्त और अहिंसा से युक्त हो। 'उनके द्वारा अहिंसात्मक जीवन-यापन हेतु कुछ व्यापारों का निषेध भी किया गया है जो द्रष्टव्य है- 1.वनजीविका, 2. अग्निजीविका, 3. शकटजीविका, 4. स्फोटजीविका, 5. भाटकजीविका, 6. यन्त्रपीड़न, 7. निलाछन कर्म, 8. असतीपोषकर्म, 9. सरःशोष, 10. दवदान, 11. विषवाणिज्य, 12. लाक्षावाणिज्य, 13. दन्तवाणिज्य, 14. केशवाणिज्य और 15. रसवाणिज्य। इसके साथ आशाधर कहते हैं कि पशु-पक्षियों को कष्ट पहुंचाने वाले हिंसात्मक व्यापार का मन, वचन और कार्य से त्याग करते हुए फरसा, तलवार, फावड़ा, अग्नि, शस्त्र, सींग, सांकल, विष, कोड़ा, दण्ड, ध नुष आदि हिंसा के साधनों को भी दूसरों को देने का निषेध किया है। हिंसा से बचने के