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जैनधर्म में वर्णित अहिंसा : गृहस्थ के परिप्रेक्ष्य में
-अमित कुमार जैन
जैनधर्म अहिंसा प्रधान धर्म है। अहिंसा जैनाचार की अनिवार्यता ही नहीं वरन् आत्मा है। किसी भी प्राणी का मन, वचन और काय से दिल न दुखाना, पीड़ा न पहुंचाना, उसके प्राणों का घात न करना अहिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार रागादि भावों का प्रकट न होना अहिंसा है। यह अहिंसा की सर्वोत्कृष्ट परिभाषा है। आचार्य कार्तिकेय स्वामी लिखते हैं कि मन, वचन, काय और कृत-कारित-अनुमोदना से जीवों का घात नहीं करना
अहिंसा है। शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में लिखते हैं- वचन, मन और शरीर से स्वप्न में भी त्रस-स्थावर जीवों के घात में प्रवृत्त नहीं होना अहिंसा है और संसार में धर्म का लक्षण अहिंसा के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं हो सकता।' प्रोफेसर तान युन शान लिखते हैं कि "अहिंसा का पवित्र उपदेश गंभीरतापूर्वक सुव्यवस्थित रूप में चौबीस जैन तीर्थंकरों के द्वारा दिया गया था, जिनमें अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थकर वर्धमान महावीर का प्रमुख स्थान है। वैसे अहिंसा को अगर जैन धर्म का पर्यायवाची कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अहिंसा के महत्व को प्रतिपादित करते हुए डॉ. वेणी प्रसाद ने लिखा है कि "सबसे ऊँचा आदर्श, जिसकी कल्पना मानव मस्तिष्क कर सकता है, अहिंसा है। अहिंसा के सिद्धांत का जितना व्यवहार किया जायेगा, उतनी ही मात्रा में सुख और शांति होगी। अहिंसा जहां, सूर्य समान प्रकाश प्रदात्री है वहीं हिंसा, भादों की गहन अंधियारी रात सी प्रतीत होती है। अहिंसा वह अद्भुत तंतु है जो सदियों से भारतीय संस्कृति रूपी पट में समाये हुए उसके अस्तित्व को कायम किये हुए है। यह तंतु संयम की कतली से तैयार किया गया है। आज विश्व ने अहिंसा के सर्वकल्याणकारी माहात्म्य को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है। परन्तु हिंसा के विराट स्वरूप के दिग्दर्शन हेतु उसके प्रतिपक्षी हिंसा की समीक्षा भी आवश्यक है।
संसार का प्रत्येक प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहता है, पर विडम्बना यह है कि जीव स्वार्थ में आकंठ डूबकर स्वयं तो सुख चाहता है और दूसरे के सुख से द्वेष करता है। सुख, शांति और प्रेम से द्वेष करना, उसका प्रतिकार करना हिंसा है। आचार्य उमास्वामी के अनुसार प्रमाद युक्त मन, वचन और काय से स्व और पर के प्राणों का घात करना हिंसा है। श्रावक धर्म प्रदीप में हिंसा के सस्वरूप चार भेद प्राप्त होते हैं- 1. उद्योगी हिंसा, 2. आरंभी हिंसा, 3. विरोधी हिंसा और 4. संकल्पी हिंसा।'
इस प्रकार की हिंसा में गृहस्थ (श्रावक) गृहस्थी के दायित्वों, धार्मिकों और ध मायतनों की सेवा, सुरक्षा एवं परिवार के भरण-पोषण हेतु उपयोगी हिंसा, आरम्भी हिंसा और विरोधी हिंसा तो कर्तव्यपरायणता के लिये करता है (जिसे शुचिता के साथ जैनध