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अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड है।" अमृतचन्द्राचार्य का कहना है कि राग-द्वेष आदि विभावों को बढ़ाने वाली, अज्ञानभाव से परिपूर्ण दूषित कथाओं को सुनना, बनाना या सीखना, दु:श्रुति अनर्थदण्ड है इन्हें कभी भी नहीं करना चाहिये। 34 पण्डित आशाधर जी का कथन है कि जिन शास्त्रों में काम, हिंसा आदि का वर्णन है, उसके सुनने से हृदय राग-द्वेष से कलुषित हो जाता है, उनके सुनने को दुःश्रुति कहते हैं उन्हें नहीं सुनना चाहिए । कुछ शास्त्र ऐसे होते हैं, जिसमें मुख्य रूप से कामभोग विषयक या हिंसा, चोरी आदि का ही कथन होता है सुनने से काम - विकार उत्पन्न होता है तथा हिंसा, चोरी आदि की बुरी आदत पड़ जाती है। दुःश्रुति नामक अनर्थदण्डव्रत में ऐसे ग्रंथों के पड़ने, सुनने, सुनाने आदि को छोड़ने की बात कही गयी है।
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५. प्रमादचर्या
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प्रमादचर्या अनर्थदण्ड का उल्लेख प्रमादाचारित नामक बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि और पवन के आरंभ करने को, वनस्पति छेदन को पर्यटन करने कराने को प्रमादचर्या अनर्थदण्ड कहते हैं। " आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि निष्प्रयोजन भूमि को खोदना, पानी सींचना, फल फूल, पत्र आदि को तोड़ना आदि पूर्ण क्रियाओं को करना प्रमादचर्या अनर्थ दण्ड है। 7 आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है- 'प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवकर्म प्रमादाचरितम् ।" अर्थात् बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पापकर्म प्रमादाचिारत नामक अनर्थदण्ड है। धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार में कहा है कि भूमि, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की वृथा विराधना करना तथा व्यर्थ गमनागमनादिक करना प्रमादचर्या है। 39 उमास्वामी जी के 'अनुसार वृक्षों को तोड़ना, भूमि का खोदना, जल का सींचना और फल-फूलों को तोड़ना संचय करना आदिक प्रमाद रूप आचरण का त्याग करना चाहिये।" श्री पद्मनन्दि जी ने भी आचार्य उमास्वामी के तुल्य ही प्रमादचर्या का वर्णन किया है।
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उक्त पांच अनर्थदण्डों के अतिरिक्त अमृतचन्द्राचार्य जी ने जुआ खेलने को भी अनर्थदण्ड माना है। उनका कहना है कि जुआ सब अनर्थों में प्रथम है, संतोष का नाश है और मायाचार का घर है, चोरी ओर असत्य का स्थान है अत: इसे दूर से ही त्याग देना चाहिये।"
अनर्थदण्डव्रत के अतिचार
१. कन्दर्प- हास्ययुक्त अशिष्ट वचनों का प्रयोग करना, 2. कौत्कुच्य- शारीरिक कुचेष्टापूर्वक अशिष्ट वचनों का प्रयोग करना, 3. मौखर्य- निष्प्रयोजन बोलते रहना या बकवाद करना, 4. असमीक्ष्याधिकरण प्रयोजन के बिना कोई न कोई तोड़-फोड़ करते रहना या काव्यादि का चिन्तन करते रहना, तथा 5. उपभोग- परिभोगानर्थक्य- प्रयोजन न होने पर भी भोग परिभोग की सामग्री एकत्र करना
३. भोगोपभोगपरिमाण व्रत
आचार्य समन्तभद्र के अनुसार परिग्रह परिमाणव्रत में ली हुई मर्यादा के अन्दर भी राग