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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग समीक्षा
-डॉ. अरुणिमा योगशास्त्र भारतीय आस्तिक बड्दर्शनों में से एक ऐसा व्यावहारिक दर्शन है, जो सोपान रुप से मनुष्य को कैवल्य की ओर अग्रसर करता है। योगदर्शन की ही भांति जैनदर्शन भी निर्वाण के लिए प्रेरित करता है। पातञ्जल दर्शन व जैनदर्शन शाब्दिक व पारिभाषिक दृष्टियों से पूर्ण समता न रखते हुए भी साधना पक्ष में समान प्रतीत होते हैं। महर्षि पातञ्जलिकृत योगदर्शन व जैनाचार्यों के योगशास्त्र में सैद्धान्तिक भिन्नता होते हुए भी जो समता दृष्टिगोचर होती है उसी समता का प्रतिपादन प्रस्तुत पत्र का विवेच्य विषय
महर्षि पतञ्जलिकृत योगदर्शन में 'योगनिश्चत्तवृत्तिनिरोधः' कहकर चित्त की वृत्तियों का निरोध करना योग कहा है। जैनाचार्य हरिभद्र ने प्राकृत में रचित 'योगविंशिका' नामक अपनी पुस्तक में योग को इस प्रकार परिभाषित किया है
'मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो विधम्मवावारो।
परिसुद्वो विन्नेओ ठाणाइगओ विसेसेणं।। संस्कृत छाया
मोक्षेण योजनातो योगः सर्वोपि धर्मव्यापारः।
परिशुद्धो विज्ञेयः स्थानादिगतो विशेषेण।। आचार्य हरिभद्र के अनुसार वह सारा परिशुद्ध कर्त्तव्य व्यापार जो मनुष्य को मोक्ष से जोड़ता है, योग कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने बारह प्रकाशों में विभाजित अपने योगशास्त्र में योग को परिभाषित करते हुए लिखा है
'चतुर्वतोऽग्रणी मोक्षो योगस्तस्य च कारणम्।
ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररुपं रत्नत्रयं च सः।।' धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन पुरुषार्थ चतुष्टय में मोक्ष मुख्य पुरुषार्थ है। उस मोक्ष का कारण या साधकतम करण योग है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र्यये तीन रत्न ही योग नाम से अभिहित हैं। जैनाचार्य उमास्वाति ने मन, वचन, व शरीर की क्रियाओं से उत्पन्न आत्मप्रदेशों का कम्पन, जिससे कर्म परमाणुओं का बन्ध होता है, उसे योग कहा है। पातञ्जल योगदर्शन वृत्ति में उपाध्याय यशोविजय ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है- 'समितिगुप्तिधारणं धर्मव्यापारपारत्वमेव योगत्वम्। समिति आवश्यक क्रियाओं में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति कहा है। गुप्ति शारीरिक, मानसिक व वाचिक क्रियाओं व निग्रह गुप्ति कहलाता है। इस प्रकार मन, वचन, शरीरादि को नियंत्रित करने वाला धर्म व्यापार ही योग है। समिति सत्क्रिया की प्रवृत्ति तथा गुप्ति अतिक्रिया का निषेध है। इनके समन्वित रुप को 'प्रवचनमात्र' कहा जाता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से इन्हें महर्षि पतञ्जलिक कृत योगदर्शन में उल्लिखित यम-नियमों के सदृश कहा जा सकता है। उत्तरार्ध सूत्र में छह