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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
तो यह है कि यह मूल की भूल अपने तीव्र वेग से 'साइनस' की तरह बढ़ रही है 'वाइरल' की तरह फैल रही है तथा 'कैंसर' की तरह हमारे संस्कारों की नींव को खोखला कर रही है। आज की शिक्षा हमें बाह्य जगत के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्रदान कर देती है, किन्तु उन उच्च जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में मौन है जो एक सुसभ्य सामाजिक प्राणी के लिए आवश्यक है।
इसी सम्बन्ध में आई.आई.टी.,दिल्ली ने एक नवीन पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने का प्रावधान रखा है- "Self Enquiry for Complete Leadership" इस पाठ्यक्रम के विषय में श्री विजयराघवन चारिअर ने बताया कि "मूल्य शिक्षा विधेय और निषेध की कोई नैतिक शिक्षा सम्बन्धी सूची नहीं है। हम चाहते है कि हमारे विद्यार्थी कुछ प्रायोगिक कार्य करें तथा स्वयं ही उसकी जिम्मेदारी भी ले, वे स्वयं की बनाई गई सीमाओं को तोड़कर पूर्ण प्रतिभा का विकास करें तथा अपने उद्देश्यों एवं संपूर्ण नेतृत्त्व के लिए आत्मान्वेषण की प्राप्ति कर सके"।"
नि:सन्देह आई.आई.टी, दिल्ली का यह प्रयास आत्मान्वेषण की दिशा का मार्ग प्रशस्त करने में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। आज जीवन मूल्यों का हास दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है ऐसे में "जैनों का 'अकारत्रय' अहिंसा, अनेकान्तवाद तथा अपरिग्रह समाज के स्वास्थ्य का सर्वोच्च मानदण्ड है। एक दूसरे के अतिरेकी विकल्पों के साथ किस तरह सामंजस्य हो सकता है उसके निर्णय के लिए अकारत्र का मानदण्ड सर्वोच्च है।"18
वास्तव में, सच्चा एवं सार्थक जीवन जीना एक कला है और इसे सिखाने का भार यदि 'समणसुत्तं' ग्रन्थ जैसे मार्गनिर्देशक को सौंपा जाए तो अवश्य ही इस कला में पारंगत होना सरल तथा सहज हो जाएगा क्योंकि 'समणसुत्तं ' ग्रन्थ असाम्प्रदायिक भावना के कारण जैन-जैनेतर सभी के द्वारा मान्य तथा वैचारिक व सामजिक एकता का प्रतीक है, जो न केवल समसामयिक शैक्षिक समस्याओं का निराकरण करने के लिए अमृतौषधि है, बल्कि आदर्श भविष्य की कल्पनाओं को धरातल पर उतारने का साधन भी है। सन्दर्भ : 1. भारतीय चिन्तन : के. दामोदरम 2. जैनवाड्.मय में ष्ठिाक्षा के तत्त्व : डा0 निशानन्द ष्टार्मा, प्राकृत जैन शस्त्र और अहिंसा शोध
संस्थान, वैशाली (बिहार), 1988, देखे पृ. सं. 35
3.
आदिपुराण प्रथम भाग : जिनसेनाचार्य, सम्पादक- अनुवादक डॉ0 पन्नालाल जैन सहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण सातवां, 2000, पृ. सं. 362, श्लोक सं.179, 180 षोडश पर्व
4. समणसुत्तं : संकलनकर्ता क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी, हिन्दी अनुवादक डा0 कैलाश चन्द जी शास्त्री
एवं मुनि नथमल जी, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट वाराणसी