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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
के सारे लोग मुक्त नहीं होते हैं तो उन्हें वह मुक्ति भी नहीं चाहिए। "प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तकामा" यही कारण है कि गाँधी ने समाज साधना को भी सर्वोदय में स्थान दिया। जीवन साधना के लिए एकादश व्रत और समाज साधना के लिए अठारह रचनात्मक कार्यक्रम बताये। यही नहीं अन्याय के प्रतिकार के लिए उन्होंने सत्याग्रह का अहिंसक अस्त्र भी दिया। इस तरह जहाँ आचार्य समन्तभद्र उच्चतम कोटि के संत थे वहीं गाँधीजी संत और योद्धा दोनों थे। उनके युद्ध में भी अहिंसा का ही प्रयोग था। गाँधी के अनुसार जीवन एक समग्रता है जिसमें समाजनीति, राजनीति, धर्मनीति सब परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते है। जैसे हमारी समाजनीति होगी वैसी ही हमारी राजनीति होगी। लेकिन गाँधी ने व्यक्तिगत शुद्धता को सब का आधार माना और इसीलिए साधन शुद्धि पर भी अत्यधिक बल दिया। आइन्सटीन ने भी अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करते हुए कहा था कि यदि अध्यात्म बिना विज्ञान अंधा है तो विज्ञान के बिना भी अध्यात्म पंगु है। गाँधी जी के शिष्य विनोबा जी ने वेदान्त को मानते हुए भी शंकराचार्य की उक्ति 'ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' के बदले 'ब्रह्म सत्यं जगत्स्फूर्तिः जीवानाम् सत्यशोधनम्' कहकर मायावाद का खंडन किया। आधुनिक युग में योगिराज श्री अरविन्द ने भी यदि भौतिकवाद का इसलिए निषेध किया कि भौतिकवादी आत्मतत्व का निषेध करते है और आध्यात्मवादियों की इसलिए आलोचना की वे भौतिकजगत का निषेध करते हैं। इसलिए गाँधीजी ने राजनीति
और अर्थनीति का आध्यात्मीकरण और शिक्षा तथा विज्ञान को भी आध्यात्म से जोड़कर सर्वोदय विचार को परिपूर्ण और गतिशील बनाया। उन्होंने जैनदर्शन के अनेकांत और स्याद्वाद को इसलिए स्वीकार किया कि वे सत्य को अपनी व्यक्तिगत धरोहर नहीं मानते। सत्य सापेक्ष होता है इसलिए अपने विचार को ही सही और दूसरे को गलत कहना एक प्रकार की हिंसा है। इसीलिए जैन परंपरा में भी भिक्षु और गृहस्थ दो प्रकार के विधान है
और दोनों के लिए अलग-अलग सदाचार के नियम है। बौद्ध परंपरा में भी पंचशील और दक्षशील का भेद है। भिक्षु बनने के लिए कठोर साधना की आवश्यकता है, लेकिन गृहस्थ सांसारिक जीवन में है फिर भी अहिंसा के साथ अपरिग्रह की साधना भी गृहस्थों के लिए भी आवश्यक है भले उसकी कुछ मर्यादा हो। अपरिग्रह के बिना अहिंसा संभव ही नहीं है और विनम्रता और सदाचार के बिना सत्य धर्म का पालन ही नहीं हो सकता। इसलिए गाँधी ने जैन धर्म के सर्वोदय विचार को युगानुकूल और व्यावहारिक बनाने के लिए उसे व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक उत्कर्ष का भी साधन बनाया।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि समन्तभद्र और गाँधी दोनों यह मानते हैं कि व्यक्तिगत जीवन शुद्धि के बिना हम समाजशुद्धि की कल्पना नहीं कर सकते हैं। इसीलिए दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। आचार्य श्री सर्वोदय विचार की नींव हैं। गाँधी सर्वोदय रूपी भव्य भवन के कलश हैं। समन्तभद्र के अनुसार सर्वोदय तीर्थ व्यक्ति को तारता हुआ मोक्ष प्रदान करता है। गाँधी का सर्वोदय व्यक्ति को तो मुक्ति देता ही है साथ-साथ समाज को भी सर्वतोभद्र रूप से विकसित करता है।