________________
86
अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
जैन विद्याओं के विकास में आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार का योगदान
-डॉ. कमलेश कुमार जैन वर्तमान युग में जैनविधाओं का विकास भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि से प्रारंभ होता है और गौतम गणधर से लेकर अद्यावधि तक जो कुछ श्रुत परंपरा किंवा गुरुपरंपरा से प्राप्त हुआ है, वह सब जैनविद्याओं के विकास का एक विस्तृत दस्तावेज है। इसे हमारे आचार्यों ने दो भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग वह है जिसका सीधा संबन्ध वीरप्रभु की ओंकार रूप दिव्यध्वनि से है। इसे गौतम गणधर ने ग्रंथों का रूप दिया और इसे ही हम द्वादशांग वाणी के नाम से जानते हैं तथा यही द्वादशांगवाणी अद्यावधि हमारा मार्गदर्शन कर रही है। यही साहित्य जैनविधाओं का मूल है। इसके आधार पर जो कुछ भी कहा गया अथवा लिखा गया वह सब द्वितीय भाग के अन्तर्गत आता है, जिसे अंगबाह्य के नाम से जाना जाता है। यद्यपि श्रुत-परंपरा के माध्यम से प्रवहमान साहित्य देश-काल की विपरीत परिस्थितियों एवं उत्तरोत्तर बुद्धि की मन्दता के कारण ह्वास को प्राप्त हुआ है, फिर भी जो कुछ शेष है वह वर्तमान परिवेश में कम नहीं है, क्योंकि सूत्र रूप में लिखित अंग साहित्य को आधार बनाकर जो भी लिखा गया है अथवा उसकी व्याख्या की गई है वह विशाल है।
इस साहित्य को श्रुत परम्परा के आधार पर पल्लवित एवं पुष्पित करने में आचार्य पुष्पदंत-भूतबलि, आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य गुणधर, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य शिवकोटि, आचार्य कीर्तिकेय स्वामी, आचार्य यतिवृषभ, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंकदेव, आचार्य विद्यानंद, आचार्य वीरसेन स्वामी, आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती, आचार्य वसुनन्दी, आचार्य अमितगति, आचार्य प्रभाचन्द्र, आचार्य अमृतचन्द्रसूरि, आचार्य जयसेन, और आचार्य जिनसेन आदि शताधिक आचार्यों ने महती भूमिका निभाई है।
वर्तमान काल में जैनविधाओं के विकास हेतु उनके लेखन, संपादन, समीक्षण, अनुवाद एवं शोध-खोज के माध्यम से पं. नाथूराम प्रेमी ने जो क्रम प्रारंभ किया उसे गति एवं स्थायित्व प्रदान करने में स्वनामधन्य पं. जुललकिशोर मुख्तार साहब का नाम सर्वोपरि
पं. मुख्तार साहब का जन्म कानूनगोयान वंश में मगसिर शुक्ला एकादशी, विक्रम संवत् 1834 (तदनुसार सन्1877) में सहारनपुर (उ.प्र.) के समीपवर्ती कस्बा सरसावा में हुआ था और 22 दिसम्बर सन् 1968 में 92 वर्ष की आयु में उनका एटा (उ.प्र.) में स्वर्गवास हो गया। आपकी माताजी का नाम श्रीमती भूदेवी एवं पिताजी का नाम चौधरी नत्थूमल था।
प्राच्य विधाओं के गहन अध्येता, महामनस्वी पं. जुगलकिशोर मुख्तार एक सफल संपादक, समालोचक, अनुवादक, भाष्यकार, निबन्धकार और सहृदय कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने बीसवीं शती के पहले दशक से सातवें दशक तक के लगभग सत्तर वर्षो में जो साहित्य साधना की है, वह अद्वितीय है। उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा जहाँ